Wednesday, May 31, 2017

कश्मीर को बचाए रखने में सेना की भूमिका भी है

जनरल बिपिन रावत के तीखे तेवरों का संदेश क्या है? मेजर गोगोई की पहल को क्या हम मानवाधिकार उल्लंघन के दायरे में रखते हैं? क्या जनरल रावत का कश्मीरी आंदोलनकारियों को हथियार उठाने की चुनौती देना उचित है? उन्होंने क्यों कहा कि कश्मीरी पत्थर की जगह गोली चलाएं तो बेहतर है? तब हम वो करेंगे जो करना चाहते हैं। उन्होंने क्यों कहा कि लोगों में सेना का डर खत्म होने पर देश का विनाश हो जाता है? उनके स्वर राजनेता जैसे हैं या उनसे सैनिक का गुस्सा टपक रहा है?

कश्मीर केवल राजनीतिक समस्या नहीं है, उसका सामरिक आयाम भी है। हथियारबंद लोगों का सामना सेना ही करती है और कर रही है। वहाँ के राजनीतिक हालात सेना ने नहीं बिगाड़े। जनरल रावत को तीन सीनियर अफसरों पर तरजीह देकर सेनाध्यक्ष बनाया गया था। तब रक्षा मंत्रालय के सूत्रों ने कहा था कि यह नियुक्ति बहुत सोच समझ कर की गई है। नियुक्ति के परिणाम सामने आ रहे हैं। सेना ने दक्षिण कश्मीर के आतंक पीड़ित इलाकों में कॉम्बिंग ऑपरेशन चला रखा है। पिछले दो हफ्तों में उसे सफलताएं भी मिली हैं। 

Monday, May 29, 2017

बजने लगे 2019 के चुनावी ढोल

मोदी सरकार के तीन साल पूरे होते ही नेपथ्य में सन 2019 के ढोल बजने लगे हैं। 
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने धुर पूर्वोत्तर जाकर देश के सबसे लंबे नदी पुल ढोला-सादिया सेतु का उद्घाटन करके यह संदेश दिया कि देश के हर कोने पर अब बीजेपी खड़ी है। गुवाहाटी की रैली में उन्होंने कहा, हमारी सरकार के लिए हिन्दुस्तान का हर कोना दिल्ली है। यह रैली एक तरह से 2019 के चुनाव प्रचार का प्रस्थान बिन्दु है। इसमें मोदी ने अपनी सारी उपलब्धियों को एक सूत्र में पिरोया था।
यह सिर्फ संयोग नहीं था कि शुक्रवार को ही दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने विरोधी दलों के नेताओं को लंच-पार्टी में एकत्र किया। यह लंच प्रकट रूप में राष्ट्रपति चुनाव के लिए विरोधी दलों की ओर से एक प्रत्याशी के बारे में विचार करने के इरादे से आयोजित था, पर वस्तुतः यह 2019 के चुनाव में एक मोर्चा बनाने की शुरुआती पहल है। एक ही दिन के दो राजनीतिक आयोजनों की सरगर्मी से माहौल में तेजी आ गई है।

Wednesday, May 24, 2017

‘दीदी’ का बढ़ता राष्ट्रीय रसूख

बंगाल की मुख्यमंत्री बनने के बाद भी ममता बनर्जी की राष्ट्रीय अभिलाषा दबी-छिपी नहीं है. पिछले साल नवंबर में नोटबंदी के बाद सबसे पहले उसके खिलाफ आंदोलन उन्होंने ही शुरू किया. उनकी पार्टी का नाम अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस है. वे साबित करती रही हैं कि क्षेत्रीय नहीं, राष्ट्रीय नेता हैं. सन 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में मुलायम सिंह के साथ मिलकर अपनी पसंद के प्रत्याशियों के नाम की पेशकश सबसे पहले उन्होंने ही की थी. इस बार भी वे पीछे नहीं हैं. पिछले हफ्ते वे इस सिलसिले में सोनिया गांधी और विपक्ष के कुछ नेताओं से बात करके गईं हैं. राष्ट्रपति पद के चुनाव में बीजेपी और कांग्रेस के बाद तीसरे नंबर पर वोट तृणमूल कांग्रेस के पास हैं.

ममता की राजनीति टकराव मोल लेने की है. इस तत्व ने भी उनका रसूख बढ़ाया है. बंगाल में इसी आक्रामक शैली से उन्होंने सीपीएम को मात दी. नरेंद्र मोदी के खिलाफ राष्ट्रीय स्तर पर महागठबंधन की योजना में भी उनकी केंद्रीय भूमिका हो सकती है. बहरहाल हाल में ममता बनर्जी पश्चिम बंगाल के सात नगरपालिका क्षेत्रों में हुए चुनावों की वजह से भी खबरों में हैं. इन चुनावों का राष्ट्रीय राजनीति के साथ कोई बड़ा रिश्ता नहीं है, पर कुछ कारणों से ये चुनाव राष्ट्रीय खबर बने.

Monday, May 22, 2017

  जीएसटी यानी एक नए युग में प्रवेश

वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लागू होने की तारीख नजदीक आने के पहले उससे जुड़ी सारी प्रक्रियाएं तकरीबन पूरी हो चुकी हैं। जीएसटी कौंसिल की श्रीनगर में हुई बैठकों में वस्तुओं और सेवाओं की दरों को मंजूरी मिल चुकी है। अभी अटकलें हैं कि कौन सी चीजें या सेवाएं सस्ती होंगी और कौन सी महंगी। यह मानकर चलना चाहिए कि इस व्यवस्था के लाभ सामने आने में दो साल लगेंगे। एक बड़ा काम हो गया, फिलहाल यह बड़ा लाभ है।
मोदी सरकार के तीन साल पूरे होने पर टीका-टिप्पणियों का दौर चल रहा है। ज्यादातर बातें राजनीतिक हैं, पर इस राजनीति के पीछे बुनियादी बातें आर्थिक हैं। जीएसटी के अलावा आर्थिक सवालों का सबसे बड़ा रिश्ता रोजगार से है। सरकार की बागडोर संभालते ही नरेन्द्र मोदी ने हर साल एक करोड़ रोजगार पैदा करने का वादा किया था। यह वादा पूरा होता दिखाई नहीं पड़ रहा है। लेबर ब्यूरो की ताजा रिपोर्ट के अनुसार फीसदी की आर्थिक संवृद्धि के बावजूद पिछले साल रोजगार सृजन में केवल 1.1 फीसदी का इजाफा हुआ। यानी कि जितने नए रोजगार बनने चाहिए थे, उतने नहीं बने। सवाल है कितने नए रोजगार बने? यह सवाल भटकाने वाला है। इसे लेकर रोज सिर फुटौवल होता है, पर कोई नहीं जानता कि कितने नए रोजगार बने या कितने नहीं बने।

Sunday, May 21, 2017

‘महाबली’ प्रधानमंत्री के तीन साल

केंद्र की एनडीए सरकार के काम-काज को कम के कम तीन नजरियों से देख सकते हैं। प्रशासनिक नज़रिए से,  जनता की निगाहों से और नेता के रूप में नरेंद्र मोदी की व्यक्तिगत पहचान के लिहाज से। प्रशासनिक मामलों में यह सरकार यूपीए-1 और 2 के मुकाबले ज्यादा चुस्त और दुरुस्त है। वजह इस सरकार की कार्यकुशलता के मुकाबले पिछले निजाम की लाचारी ज्यादा है। मनमोहन सिंह की बेचारगी की वजह से उनके आर्थिक सलाहकार कौशिक बसु ने अमेरिका में एक कार्यक्रम के दौरान कहा था कि देश पॉलिसी पैरेलिसिस से गुजर रहा है। अब आर्थिक सुधार 2014 के बाद ही हो पाएंगे।

यह सन 2012 की बात है। तब कोई नहीं कह सकता था कि देश के अगले प्रधानमंत्री की कुर्सी पर नरेंद्र मोदी को बैठना है। इस बयान के करीब एक साल बाद कांग्रेस के दूसरे नंबर के नेता राहुल गांधी ने एक प्रेस कांफ्रेंस में मनमोहन सरकार के एक अध्यादेश को फाड़कर फेंका था। सही या गलत नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस की कमजोरी का फायदा उठाया। वे ‘पॉलिसी पैरेलिसिस’ की प्रतिक्रिया के रूप में सामने आए हैं। यह साबित करते हुए कि वे लाचार नहीं, ‘महाबली’ प्रधानमंत्री हैं।