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Friday, February 10, 2017

मर्यादा एक तरफ से नहीं टूटी

लोकसभा राज्यसभा में प्रधानमंत्री के भाषण और उन्हें लेकर कांग्रेसी प्रतिक्रिया के साथ संसदीय मर्यादा के सवाल खड़े हुए हैं। राजनीतिक शब्दावली को लेकर संयम बरतने की जरूरत है। वोट की राजनीति ने समाज के ताने-बाने में कड़वाहट भर दी है। उसे दूर करने की जरूरत है। इस घटनाक्रम पर गौर करें तो पाएंगे कि इन बातों में क्रमबद्धता है। क्रिया की प्रतिक्रिया है। दोनों पक्ष एक-दूसरे को जवाब देना चाहते हैं। सवाल है कि क्या संसद इसी काम के लिए बनी है? 

प्रधानमंत्री ने राज्यसभा में मनमोहन सिंह पर ‘रेनकोट पहन कर नहाने’ के जिस रूपक इस्तेमाल किया, उसे कांग्रेस ने ‘तल्ख और बेहूदा’ करार दिया है। कांग्रेस चाहती है कि पूर्व प्रधानमंत्री की मर्यादाएं हैं। उनका सम्मान होना चाहिए। पर क्या कांग्रेस प्रधानमंत्री के पद की गरिमा को मानती है? राज्यसभा में मोदी के भाषण के दौरान विरोधी कुर्सियों से जिस तरह से टिप्पणियाँ हो रहीं थी क्या वह उचित था? संभव है कि यह किसी योजना के तहत नहीं हुआ हो, पर माहौल में उत्तेजना पहले से थी। बीच में एकबार वेंकैया नायडू ने उठकर कहा भी कि क्या यह ऐसे ही चलता रहेगा? क्या रनिंग कमेंट्री चलती रहेगी?

Saturday, February 4, 2017

चुनाव में बजट भी बनेगा मुद्दा

बजट हो या कोई भी सरकारी नीति उसका संबंध चुनाव से नहीं हो, ऐसा संभव नहीं। इसमें कोई निराली बात नहीं है। सरकारें चुनाव जीतने के लिए ही काम करती हैं। खुद को देश का सबसे बड़ा हितैषी साबित करने की कोशिश की जाती है। पाँच राज्यों के चुनाव के ठीक पहले बजट लाने का कांग्रेस ने विरोध ही इसलिए किया था कि सरकार कहीं खुद को ज्यादा बड़ा देश-हितैषीसाबित न कर दे। इसलिए सरकार की कोशिशों पर नजर डालनी चाहिए और इसपर भी कि विपक्ष इन कोशिशों पर पानी कैसे डालेगा।

Saturday, January 28, 2017

बेदम हैं यूपी में कांग्रेसी महत्वाकांक्षाएं

सुदीर्घ अनिश्चय के बाद कांग्रेस ने प्रियंका गांधी को राजनीति के सक्रिय मैदान में उतारने का फैसला कर लिया है। प्रियंका अभी तक निष्क्रिय नहीं थीं, पर पूरी तरह मैदान में कभी उतर कर नहीं आईं। अभी यह साफ नहीं है कि वे केवल उत्तर प्रदेश में सक्रिय होंगी या दूसरे प्रदेशों में भी जाएंगी। उत्तर प्रदेश का चुनाव कांग्रेस के लिए बड़ा मैदान जीतने का मौका देने वाला नहीं है। वह दूसरी बार चुनाव-पूर्व गठबंधन के साथ उतर रही है। यह गठबंधन भी बराबरी का नहीं है। गठबंधन की जीत हुई भी तो मुख्यमंत्री अखिलेश यादव बनेंगे। कांग्रेस के लिए इतनी ही संतोष की बात होगी। और उससे बड़ा संतोष तब होगा, जब उसके विधायकों की संख्या 50 पार कर जाए। बाकी सब बोनस।   

Saturday, January 14, 2017

‘गरीब-मुखी’ राजनीति: मोदी कथा का दूसरा अध्याय

पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव एक तरह से मध्यावधि  जनादेश का काम करेंगे। सरकार के लिए ही नहीं विपक्ष के लिए भी। चूंकि सोशल मीडिया की भूमिका बढ़ती जा रही है, इसलिए इन चुनावों में आभासी माहौल की भूमिका कहीं ज्यादा होगी। कहना मुश्किल है कि छोटी से छोटी घटना का किस वक्त क्या असर हो जाए। दूसरे राजनीति उत्तर प्रदेश की हो या मणिपुर की सोशल मीडिया पर वह वैश्विक राजनीति जैसी महत्वपूर्ण बनकर उभरेगी। इसलिए छोटी सी भी जीत या हार भारी-भरकम नजर आने लगेगी।
बहरहाल इस बार स्थानीय सवालों पर राष्ट्रीय प्रश्न हावी हैं। ये राष्ट्रीय सवाल दो तरह के हैं। एक, राजनीतिक गठबंधन के स्तर पर और दूसरा मुद्दों को लेकर। सबसे बड़ा सवाल है कि नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता का ग्राफ क्या कहता है? लोकप्रियता बढ़ी है या घटी? दूसरा सवाल है कि कांग्रेस का क्या होने वाला है? उसकी गिरावट रुकेगी या बढ़ेगी? नई ताकत के रूप में आम आदमी पार्टी की भी परीक्षा है। क्या वह गोवा और पंजाब में नई ताकत बनकर उभरेगी? और जनता परिवार का संगीत मद्धम रहेगा या तीव्र?

Tuesday, December 20, 2016

राहुल के तेवर इतने तीखे क्यों?

राहुल गांधी के तेवर अचानक बदले हुए नजर आते हैं। उन्होंने बुधवार को नरेंद्र मोदी पर सीधा हमला बोलकर माहौल को विस्फोटक बना दिया है। उन्हें विपक्ष के कुछ दलों का समर्थन भी हासिल हो गया है। इनमें तृणमूल कांग्रेस और एनसीपी शामिल हैं। हालांकि बसपा भी उनके साथ नजर आ रही है, जबकि दूसरी ओर यूपी में कांग्रेस और सपा के गठबंधन की अटकलें भी हैं। बड़ा सवाल फिलहाल यह है कि राहुल ने इतना बड़ा बयान किस बलबूते दिया और वे किस रहस्य पर से पर्दा हटाने वाले हैं? क्या उनके पास ऐसा कोई तथ्य है जो मोदी को परेशान करने में कामयाब हो? 
बहरहाल संसद का सत्र खत्म हो चुका है और राजनीति का अगला दौर शुरू हो रहा है। नोटबंदी के कारण पैदा हुई दिक्कतें भी अब क्रमशः कम होती जाएंगी। अब सामने पाँच राज्यों के चुनाव हैं। देखना है कि राहुल इस दौर में अपनी पार्टी को किस रास्ते पर लेकर जाते हैं।  

Saturday, December 10, 2016

अद्रमुक का दामन थामेगी कांग्रेस

जयललिता के निधन के बाद तमिलनाडु की राजनीति में पहला सवाल अद्रमुक की सत्ता-संरचना को लेकर है। यानी कौन होगा उसका नेता? कैसे चलेगा उसका संगठन और सरकार? फिलहाल ओ पन्‍नीरसेल्‍वम को मुख्यमंत्री बनाया गया है। सवाल है क्या वे मुख्यमंत्री बने रहेंगे? पार्टी संगठन का सबसे बड़ा पद महासचिव का है। अभी तक जयललिता महासचिव भी थीं। एमजीआर और जयललिता दोनों के पास मुख्यमंत्री और महासचिव दोनों पद थे। अब क्या होगा?

Saturday, November 26, 2016

कांग्रेस एक पायदान नीचे

नोटबंदी के दो हफ्ते बाद राष्ट्रीय राजनीति में विपक्ष की भावी रणनीति भी सामने आने लगी है। इसमें सबसे ज्यादा तेजी दिखाई है ममता बनर्जी ने, जिन्होंने जेडीयू, सपा, एनसीपी और आम आदमी पार्टी के साथ सम्पर्क करके आंदोलन खड़ा करने की योजना बना ली है। इसकी पहली झलक बुधवार को दिल्ली में दिखाई दी। जंतर-मंतर की रैली के बाद अचानक ममता बनर्जी का कद मोदी की बराबरी पर नजर आने लगा है। पर ज्यादा महत्वपूर्ण है कांग्रेस का विपक्षी सीढ़ी पर एक पायदान और नीचे चले जाना। नोटबंदी के खिलाफ एक आंदोलन ममता ने खड़ा किया है और दूसरा आंदोलन कांग्रेस चला रही है। बावजूद संगठनात्मक लिहाज से ज्यादा ताकतवर होने के कांग्रेस के आंदोलन में धार नजर नहीं आ रही है। राहुल गांधी अब मुलायम सिंह, मायावती और नीतीश कुमार के बराबर के नेता भी नजर नहीं आते हैं।

Tuesday, October 11, 2016

समस्या ‘हाथी’ से ज्यादा बड़ी है

नब्बे के दशक में जब लखनऊ में पहली बार आम्बेडकर उद्यान का निर्माण शुरू हुआ था, तब यह सवाल उठा था कि सार्वजनिक धन के इस्तेमाल को लेकर क्या राजनीतिक दलों पर मर्यादा लागू नहीं होती? जवाब था कि चुनाव के वक्त यह जनता तय करेगी कि सरकार का कार्य उचित है या नहीं? आम्बेडकर स्मारक काफी बड़ी योजना थी। उसे दलितों के लिए प्रेरणा स्थल के रूप में पेश किया गया।
देश में इसके पहले भी बड़े नेताओं के स्मारक बने हैं। सार्वजनिक धन से भी बने हैं। उसपर भी बात होनी चाहिए कि देश में एक ही प्रकार के नेताओं के स्मारकों की भरमार क्यों है। पर हाथी राजनीतिक प्रतीक है और बीएसपी का चुनाव चिह्न। यह सरासर ज्यादती है। लखनऊ में और उत्तर प्रदेश के कुछ दूसरे स्थानों पर भी हाथियों की बड़ी-बड़ी मूर्तियाँ खड़ी की गईं। क्या यह चुनाव प्रचार में मददगार नहीं?

Saturday, October 8, 2016

‘सर्जिकल स्ट्राइक’ पर कांग्रेसी दुविधा

कांग्रेस पार्टी ने कहा है कि हम सर्जिकल स्ट्राइक के मामले में भारतीय जवानों के साथ हैं, लेकिन इसे लेकर क्षुद्र राजनीति नहीं की जानी चाहिए। रणदीप सुरजेवाला का कहना है, ‘ हम सर्जिकल स्ट्राइक पर कोई सवाल नहीं उठा रहे हैं, लेकिन यह कोई पहला सर्जिकल स्ट्राइक नहीं है। कांग्रेस के शासनकाल में 1 सितंबर 2011, 28 जुलाई 2013 और 14 जनवरी 2014 को 'शत्रु को मुंहतोड़ जबाव' दिया गया था। परिपक्वता, बुद्धिमत्ता और राष्ट्रीय सुरक्षा के मद्देनज़र कांग्रेस सरकार ने इस तरह कभी हल्ला नहीं मचाया।
भारतीय राजनीति में युद्ध की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। सन 1962 की लड़ाई से नेहरू की लोकप्रियता में कमी आई थी। जबकि 1965 और 1971 की लड़ाइयों ने लाल बहादुर शास्त्री और इंदिरा गांधी का कद काफी ऊँचा कर दिया था। करगिल युद्ध ने अटल बिहारी वाजपेयी को लाभ दिया। इसीलिए 28-29 सितम्बर की सर्जिकल स्ट्राइक के निहितार्थ ने देश के राजनीतिक दलों एकबारगी सोच में डाल दिया। सोच यह है कि क्या किसी को इसका फायदा मिलेगा? और क्या कोई घाटे में रहेगा?

Saturday, September 24, 2016

अरुणाचल की फूहड़ कॉमेडी

अरुणाचल में उठा-पटक ने नए किस्म की राजनीति का मुज़ाहिरा किया है। इसके अच्छे या बुरे परिणामों के लिए हमें तैयार रहना चाहिए। बीजेपी को खुशी होगी कि उसने एक और प्रदेश को कांग्रेस मुक्त कर दिया, पर यह ढलान पर उतरती राजनीति का एक पड़ाव है। अभी तक बीजेपी इसमें प्रत्यक्ष रूप से शामिल नहीं है और इसे कांग्रेस की गलतियों का परिणाम बता रही है, पर वह अपने हाथ को छिपा नहीं पाएगी। इससे पूर्वोत्तर में बीजेपी का रास्ता और आसान हो गया है, पर जिस हास्यास्पद तरीके से यह हुआ है, उससे भविष्य को लेकर शंकाएं पैदा होती हैं।

Sunday, August 21, 2016

क्या राष्ट्रीय बनेगा दलित प्रश्न?

गुजरात में 15 अगस्त को पूर्ण हुई दलित अस्मिता यात्रा ने राष्ट्रीय राजनीति में एक नई ताकत के उभरने का संकेत किया है। दलितों और मुसलमानों को एक मंच पर लाने की कोशिशें की जा रहीं है। राजनीति कहने पर हमारा पहला ध्यान वोट बैंक पर जाता है। गुजरात में दलित वोट लगभग 7 फीसदी है। इस लिहाज से यह गुजरात में तो बड़ी राजनीतिक ताकत नहीं बनेगी, पर राष्ट्रीय ताकत बन सकती है। बेशक इससे गुजरात के चुनाव पर असर पड़ेगा, पर फौरी तौर पर रैली का राष्ट्रीय निहितार्थ ज्यादा बड़ा है। 
इस ताकत को खड़ा करने के पहले कई किन्तु-परन्तु भी हैं। सच यह है कि सभी दबी-कुचली जातियाँ किसी एक मंच पर या किसी एक नेता के पीछे खड़ी नहीं होतीं। उनकी वर्गीय चेतना पर जातीय चेतना हावी रहती है। सभी जातियों के मसले एक जैसे नहीं हैं। प्रायः सभी दलित जातियाँ भूमिहीन हैं। उनकी समस्या रोजी-रोटी से जुड़ी है। दूसरी समस्या है उत्पीड़न और भेदभाव। जैसे मंदिर में प्रवेश पर रोक वगैरह। इन दोनों के समाधान पीछे रह जाते हैं और राजनीतिक दल इन्हें वोट बैंक से ज्यादा नहीं समझते।  

Saturday, July 9, 2016

ज़ाकिर नाइक उर्फ मीठा ज़हर

बांग्लादेश में एक के बाद एक आतंकी हिंसा की दो बड़ी घटनाएं न हुईं होतीं तो शायद ज़ाकिर नाइक पर हम ज्यादा ध्यान नहीं देते। वे सामान्य इस्लामी प्रचारक से अलग नजर आते हैं। हालांकि वे इस्लाम का प्रचार करते हैं, पर सबसे ज्यादा मुसलमान ही उनके नाम पर लानतें भेजते हैं। पिछले वर्षों में वे कई बार खबरों में रहे। सन 2009 में उत्तर प्रदेश के उनके कार्यक्रमों पर रोक लगाई गई थी। जनवरी 2011 में इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर में उनके एक कार्यक्रम का जबर्दस्त विरोध हुआ।

भारत और पाकिस्तान में दारुल उलूम उनके खिलाफ फतवा जारी कर चुका है। इतने विरोध के बावजूद उनकी लोकप्रियता भी कम नहीं है। क्यों हैं वे इतने लोकप्रिय? ताजा खबर यह है कि श्रीनगर में उनके समर्थन में पोस्टर लगे हैं। कश्मीरी आंदोलन को उनकी बातों में ऐसा क्या मिल गया? पर उसके पहले सवाल है कि बांग्लादेश के नौजवानों को उनके भाषणों में प्रेरक तत्व क्या मिला?

Sunday, June 19, 2016

बहुत देर कर दी हुज़ूर आते-आते

 दिल्ली के सियासी हलकों में खबर गर्म है कि कांग्रेस पार्टी उत्तर प्रदेश में शीला दीक्षित को मुख्यमंत्री पद की प्रत्याशी के रूप में पेश कर सकती हैं। शुक्रवार को उनकी सोनिया गांधी के साथ मुलाकात के बाद इस सम्भावना को और बल मिला है। इसमें असम्भव कुछ नहीं। शीला दीक्षित कांग्रेस के पास बेहतरीन सौम्य और विश्वस्त चेहरा है। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस को जैसा चेहरा चाहिए वैसा ही। गुलाम नबी आजाद को उत्तर प्रदेश का गुलाम प्रभारी बनाना पार्टी का सूझबूझ भरा कदम है।

कांग्रेस का आखिरी दाँव

कांग्रेस के पास अब कोई विकल्प नहीं है। राहुल गांधी की सफलता या विफलता  भविष्य की बात है, पर उन्हें अध्यक्ष बनाने के अलावा पार्टी के पास कोई रास्ता नहीं बचा। सात साल से ज्यादा समय से पार्टी उनके नाम की माला जप रही है। अब जितनी देरी होगी उतना ही पार्टी का नुकसान होगा। हाल के चुनावों में असम और केरल हाथ से निकल जाने के बाद डबल नेतृत्व से चमत्कार की उम्मीद करना बेकार है। सोनिया गांधी अनिश्चित काल तक कमान नहीं सम्हाल पाएंगी। राहुल गांधी के पास पूरी कमान होनी ही चाहिए।

राहुल के अध्यक्ष बनने के बाद अब प्रियंका गांधी को लाने की माँग भी नहीं उठेगी। शक्ति के दो केन्द्रों का संशय नहीं होगा। कांग्रेस अब बाउंसबैक करे तो श्रेय राहुल को और डूबी तो उनका ही नाम होगा। हालांकि कांग्रेस की परम्परा है कि विजय का श्रेय नेतृत्व को मिलता है और पराजय की आँच उसपर पड़ने से रोकी जाती है। सन 2009 की जीत का श्रेय मनमोहन सिंह के बजाय राहुल को दिया गया और 2014 की पराजय की जिम्मेदारी सरकार पर डाली गई।

Wednesday, June 15, 2016

इमेज बदलती भाजपा


भारतीय जनता पार्टी का फिलहाल सबसे बड़ा एजेंडा है पैन-इंडिया इमेजबनाना। उसे साबित करना है कि वह केवल उत्तर भारत की पार्टी नहीं है। पूरे भारत की धड़कनों को समझती है। हाल के घटनाक्रम ने उम्मीदों को काफी बढ़ाया है। एक तरफ उसे असम की जीत से हौसला मिला है, वहीं मुख्य प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस गहराती घटाओं से घिरी है। भाजपा के बढ़ते आत्मविश्वास की झलक इलाहाबाद में हुई राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक में देखने को मिली, जहाँ एक राजनीतिक प्रस्ताव में कहा गया कि अब देश में केवल बीजेपी ही राष्ट्रीय आधार वाली पार्टी है। वह तमाम राज्यों में स्वाभाविक सत्तारूढ़ पार्टी है। कांग्रेस दिन-ब-दिन सिकुड़ रही है। शेष दलों की पहुँच केवल राज्यों तक सीमित है।

Sunday, May 22, 2016

और कितनी फज़ीहत लिखी है कांग्रेस की किस्मत में?

पांच राज्यों के चुनाव नतीजे आने के बाद कांग्रेस महासचिव दिग्विजय सिंह ने अपने एक ट्वीट में कहा कि बड़ी सर्जरी की जरूरत है। उन्होंने कहीं यह भी कहा कि गांधी परिवार की वंशज प्रियंका गांधी के राजनीति में आने से कांग्रेसजन को बेहद खुशी होगी। उनमें जननेता के तौर पर उभरने की क्षमता है। अखबारों में उनका यह बयान भी छपा है कि ये चुनाव परिणाम पार्टी के केन्द्रीय नेतृत्व की विफलता को परिलक्षित नहीं करते। तीनों बातें अंतर्विरोधी हैं। तीनों को एकसाथ मिलाकर पढ़ें तो लगता है कि पार्टी के अंतर्विरोधों के खुलने की घड़ी आ रही है। नए और पुराने नेतृत्व का टकराव नजर आने लगा है। समय रहते इसे सँभाला नहीं गया तो असंतोष खुलकर सामने आएगा।

Saturday, May 14, 2016

कांग्रेसी छतरी में छेद

सन 2014 की ऐतिहासिक पराजय के दो साल अगले हफ्ते पूरे होने जा रहे हैं। इन दो साल में पार्टी ढलान पर उतरती ही गई है। गुजरे दो साल में एक भी घटना ऐसी नहीं हुई, जिससे पार्टी की पराजित आँखों में रोशनी दिखाई पड़ी हो। पिछले दो साल में हुए चुनावों में उसे कहीं सफलता नहीं मिली। बिहार विधानसभा में उसकी स्थिति बेहतर जरूर हुई है, पर दूसरों के सहारे। उसके पीछे कांग्रेस की रणनीति नहीं थी। फिलहाल अकेले दम पर जीतने की कोई योजना उसके पास नहीं है। अब वह उत्तर भारत में गठबंधनों के सहारे वैतरणी पार करना चाहती है।

Saturday, April 23, 2016

पेचीदगियों से भरा ‘संघ मुक्त भारत’ अभियान

लोकतंत्र की रक्षा के लिए नीतीश कुमार ‘संघ मुक्त’ भारत कार्यक्रम लेकर आ रहे हैं। पर उसके पहले वे राष्ट्रीय स्तर पर अपनी उपस्थिति को बेहतर बनाना चाहते हैं। इसके लिए उन्होंने सबसे पहले अपने दल की राष्ट्रीय अध्यक्षता को सम्हाला है। वे जल्द से जल्द बीजेपी विरोधी दलों की व्यापक एकता के केन्द्र में आना चाहते हैं। वे कहते हैं कि यह काम कई तरह से होगा। कुछ दलों का आपस में मिलन भी हो सकता है। कई दलों का मोर्चा और गठबंधन भी बन सकता है। कोई एक संभावना नहीं है, अनेक संभावनाएं हैं। इस मोर्चे की प्रक्रिया और पद्धति का दरवाजा खुला है। पिछले पचासेक साल से यह प्रक्रिया चल रही है। बहरहाल अब नीतीश कुमार ने इसमें कांग्रेस को भी शामिल करके इसे नई दिशा दी है। जिससे इस अवधारणा के अंतर्विरोध बढ़ गए हैं।

Sunday, March 27, 2016

अंतर्विरोधों से घिरी है जनता-कांग्रेस एकता

बारह घोड़ों वाली गाड़ी

चुनावी राजनीति ने भारतीय समाज में निरंतर चलने वाला सागर-मंथन पैदा कर दिया है। पाँच साल में एक बार होने वाले आम चुनाव की अवधारणा ध्वस्त हो चुकी है। हर साल किसी न किसी राज्य की विधानसभा का चुनाव होता है। दूसरी ओर राष्ट्रीय राजनीति में क्षेत्रीय दलों का हस्तक्षेप बढ़ा है। गठबंधन बनते हैं, टूटते हैं और फिर बनते हैं। यह सब वैचारिक आधार पर न होकर व्यक्तिगत हितों और फौरी लक्ष्यों से निर्धारित होता है। किसी के पास दीर्घकालीन राजनीति का नक्शा नजर नहीं आता।
अगले महीने हो रहे विधानसभा चुनाव के पहले चारों राज्यों में चुनाव पूर्व गठबंधनों की प्रक्रिया अपने अंतिम चरण में है। बंगाल में वामदलों के साथ कांग्रेस खड़ी है, पर तमिलनाडु और केरल में दोनों एक-दूसरे के सामने हैं। यह नूरा-कुश्ती कितनी देर चलेगी? नूरा-कुश्ती हो या नीतीश का ब्रह्मास्त्र राष्ट्रीय स्तर पर भारतीय जनता पार्टी का एक विरोधी कोर ग्रुप जरूर तैयार हो गया है। इसमें कांग्रेस, वामदलों और जनता परिवार के कुछ टूटे धड़ों की भूमिका है। पर इस कोर ग्रुप के पास उत्तर प्रदेश का तिलिस्म तोड़क-मंत्र नहीं है।
ताजा खबर यह है कि जनता परिवार को एकजुट करने की तमाम नाकाम कोशिशों के बाद जदयू, राष्ट्रीय लोकदल, झारखंड विकास मोर्चा (प्रजातांत्रिक) और समाजवादी जनता पार्टी (रा) बिहार, झारखंड और उत्तर प्रदेश में विलय की संभावनाएं फिर से टटोल रहे हैं। नीतीश कुमार, जदयू अध्यक्ष शरद यादव, रालोद प्रमुख अजित सिंह, उनके पुत्र जयंत चौधरी और चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर की 15 मार्च को नई दिल्ली में इस सिलसिले में हुई बैठक में बिहार के महागठबंधन का प्रयोग दोहराने पर विचार किया गया।

Wednesday, February 24, 2016

सरकारी पेशबंदी बनाम विपक्षी घेराबंदी

राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी के अभिभाषण के साथ ही मंगलवार को संसद के बजट सत्र शुरू हो गया। पिछले सत्रों की तरह ही इस बार भी बड़े विपक्षी दल जेएनयू और दूसरे मुद्दों पर सरकार को घेरने की योजना बना रहे हैं। राष्ट्रपति के अभिभाषण में सरकारी पेशबंदी भी दिखाई पड़ती है। राष्ट्रपति ने प्रतीकों के सहारे मोदी सरकार की प्राथमिकताओं को संसद के सामने रखा है। उन्होंने कहा कि हमारी संसद जनता की आकांक्षा को व्यक्त करती है। लोकतांत्रिक भावना का तकाजा है कि सदन में बहस और विचार-विमर्श हो। संसद चर्चा के लिए है, हंगामे के लिए नहीं। उसमें गतिरोध नहीं होना चाहिए।