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Sunday, December 13, 2015

उल्टी भी पड़ सकती है कांग्रेसी आक्रामकता


सन 2014 के चुनाव में भारी पराजय के बाद कांग्रेस के सामने मुख्यधारा में फिर से वापस आने की चुनौती है। जिस तरह सन 1977 की पराजय के बाद इंदिरा गांधी ने अपनी वापसी की थी। पार्टी उसी लाइन पर भारतीय जनता पार्टी को लगातार दबाव में लाने की कोशिश कर रही है। पार्टी की इसी छापामार राजनीति का नमूना संसद के मॉनसून सत्र में देखने को मिला. संयोग से उसके बाद बिहार में हुए विधानसभा चुनाव में पार्टी को उम्मीद से ज्यादा सीटें मिलीं। इस दौरान राहुल गांधी के तेवरों में भी तेजी आई है।

संसद के इस सत्र में भी कांग्रेस मोल-भाव की मुद्रा में है। पिछले हफ्ते दिल्ली हाईकोर्ट ने नेशनल हैरल्ड के मामले में जो फैसला सुनाया है, उसने राष्ट्रीय राजनीति का ध्यान खींचा है। सहज भाव से कांग्रेस पहले रोज से ही इस मामले में बजाय रक्षात्मक होने के आक्रामक है। देखना होगा कि क्या पार्टी इस आक्रामकता को बरकरार रख सकती है। क्या सन 2016 के विधानसभा चुनावों में पार्टी को कमोबेश सफलता मिलेगी?


पहली नजर में हैरल्ड मामले में कांग्रेस पार्टी की प्रतिक्रिया न तो संतुलित है और न सुविचारित। इसके कानूनी और राजनीतिक पहलुओं पर सोचे समझे बगैर पार्टी ने पहले दिन से जो रुख अपनाया है, वह कांग्रेस के पुराने दिनों की याद दिलाता है, जब इंदिरा गांधी के खिलाफ तनिक सी बात सामने आने पर भी देशभर में रैलियाँ होने लगती थीं। पार्टी को गलतफहमी है कि संसद से सड़क तक हंगामा करने से उसकी वापसी हो जाएगी। पार्टी का अदालती प्रक्रिया को लेकर रवैया खतरनाक है। देश भूला नहीं है कि सन 1975 का आपातकाल इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले के कारण लागू हुआ था। संयोग से सोनिया गांधी ने ‘इंदिरा की बहू हूँ’ कहकर उसकी पुष्टि भी कर दी। यह एक सामान्य मामला है तो उन्हें अदालत में दोषी ठहराया ही नहीं जा सकता। जब वे दोषी हैं नहीं तो कोई उनको फँसा कैसे देगा?

Sunday, November 1, 2015

हाशिए पर जाने वाली है कांग्रेस

बिहार में चुनाव अब अंतिम दौर में है। परिणाम चाहे जो हो, उसका राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा असर होने वाला है। भारतीय जनता पार्टी के भीतर नेतृत्व को लेकर असमंजस और भाजपा-विरोधी राष्ट्रीय गठबंधन की सम्भावनाएं इस पार या उस पार लगेंगी। दिल्ली में अरविंद केजरीवाल सामने आ रहे हैं। ममता बनर्जी ने समर्थन किया ही है। उड़ीसा के मुख्यमंत्री नवीन पटनायक ने अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं। महागठबंधन जीता तो श्रेय किसे मिलेगा? कांग्रेस को, राहुल गांधी को या लालू और नीतीश को? बिहार से आश्चर्यजनक खबरें मिल रहीं हैं कि कांग्रेसी प्रत्याशी लालू-नीतीश की मदद चाहते हैं सोनिया-राहुल की नहीं। परिणाम आने के बाद लालू-नीतीश को अफसोस होगा कि कांग्रेस को इतनी सीटें दी ही क्यों थीं। इस परिणाम की गूँज संसद के शीत सत्र में भी सुनाई पड़ेगी।  जीएसटी, भूमि अधिग्रहण तथा आर्थिक उदारीकरण से जुड़े कानूनों की दिशा का पता भी इससे लगेगा। जब तक राज्यसभा में कांग्रेस की उपस्थिति है वह खबरों में रहेगी, पर उसके बाद?

Wednesday, July 29, 2015

‘राजनीति’ फिर वापस पटरी पर आएगी इस ब्रेक के बाद

‘राजनीति’ वापस आएगी इस ब्रेक के बाद

  • 2 घंटे पहले
कलाम श्रद्धांजलि
पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम, याक़ूब मेमन और पंजाब के गुरदासपुर के एक थाने पर हुए हमले के कारण मीडिया का ध्यान कुछ देर के लिए बंट गया.
इस वजह से मुख्यधारा की राजनीति कुछ देर के लिए ख़ामोश है.
दो-तीन रोज़ में जब सन्नाटा टूटेगा तब हो सकता है कि मसले और मुद्दे बदले हुए हों, पर तौर-तरीक़े वही होंगे.

मॉनसून सत्र का हंगामा

हंगामा, गहमागहमी और शोर हमारी राजनीति के दिल-ओ-दिमाग़ में है.
एक धारणा है कि इसमें संजीदगी, समझदारी और तार्किकता कभी थी भी नहीं. पर जैसा शोर, हंगामा और अराजकता आज है, वैसी पहले नहीं था.
क्या इसे राजनीति और मीडिया के ‘ग्रास रूट’ तक जाने का संकेतक मानें?
लोकसभा, मानसून सत्र
शोर, विरोध और प्रदर्शन को ही राजनीति मानें? क्या हमारी सामाजिक संरचना में अराजकता और विरोध ताने-बाने की तरह गुंथे हुए हैं?
संसद के मॉनसून सत्र के शुरुआती दिनों में अनेक सदस्य हाथों में पोस्टर-प्लेकार्ड थामे टीवी कैमरा के सामने आने की कोशिश करते रहे.
कैमरा उनकी अनदेखी कर रहा था, इसलिए उन्होंने स्पीकर के आसपास मंडराना शुरू किया या जिन सदस्यों को बोलने का मौक़ा दिया गया उनके सामने जाकर पोस्टर लगाए ताकि टीवी दर्शक उन्हें देखें.
हमने मान लिया है कि संसद में हंगामा राजनीतिक विरोध का तरीक़ा है और यह हमारे देश की परम्परा है. इसलिए लोकसभा टीवी को इसे दिखाना भी चाहिए.
लोकतांत्रिक विरोध को न दिखाना अलोकतांत्रिक है.
पिछले हफ़्ते कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा था कि लोकसभा में कैमरे विपक्ष का विरोध नहीं दिखा रहे हैं. सिर्फ़ सत्तापक्ष को ही कैमरों में दिखाया जा रहा है.
उपाध्यक्ष राहुल गांधी ने कहा कि मोदी सरकार विपक्ष की आवाज़ दबा देना चाहती है.

मेरा बनाम तेरा भ्रष्टाचार

अधीर रंजन, लोकसभा, मानसून सत्र
कांग्रेस की प्रतिज्ञा है कि जब तक सरकार भ्रष्टाचार के आरोप से घिरे नेताओं को नहीं हटाएगी, तब तक संसद नहीं चलेगी.

Thursday, July 23, 2015

अगले चार साल में क्या करेगी कांग्रेस?

पिछले कुछ महीनों से कांग्रेस पार्टी के आक्रामक तेवर और विपक्षी दलों के साथ उसके बेहतर तालमेल के कारण भारतीय राजनीति में बदलाव का संकेत मिल रहा है. पिछले एक साल में नरेंद्र मोदी की सरकार की लोकप्रियता में गिरावट के संकेत मिल रहे हैं.
बीजेपी सरकार की रीति-नीति के अलावा कांग्रेस की बढ़ती आक्रामकता भी इस गिरावट का कारण है. पर यह आभासी राजनीति है. इसे राजनीतिक यथार्थ यानी चुनावी सफलता में तब्दील होना चाहिए. क्या अगले कुछ वर्षों में यह पार्टी कोई बड़ी सफलता हासिल कर सकती है?
कैसे होगा बाउंसबैक?

फिलहाल कांग्रेस इतिहास के सबसे नाज़ुक दौर में है. देश के दस से ज्यादा राज्यों और केंद्र शासित क्षेत्रों से लोकसभा में उसका कोई प्रतिनिधि नहीं है. सन 1967, 1977, 1989, 1991 और 1996 के साल कांग्रेस की चुनावी लोकप्रिय में गिरावट के महत्वपूर्ण पड़ाव थे. पर 2014 में उसे अब तक की सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा.

Sunday, July 19, 2015

‘डायपर-छवि’ से क्या बाहर आ पाएंगे राहुल?

भारतीय राजनीति में इफ्तार पार्टी महत्वपूर्ण राजनीतिक गतिविधि के रूप में अपनी जगह बना चुकी है। इस लिहाज से सोनिया गांधी की इफ्तार पार्टी में मुलायम सिंह और लालू यादव का न जाना और राष्ट्रपति की इफ्तार पार्टी में नरेंद्र मोदी का न जाना बड़ी खबरें हैं। बनते-बिगड़ते रिश्तों और गोलबंदियों की झलक पिछले हफ्ते देखने को मिली। पर शुक्रवार को राहुल गांधी के नरेंद्र मोदी पर वार और भाजपा के पलटवार से अगले हफ्ते की राजनीति का आलम समझ में आने लगा है। साफ है कि कांग्रेस अबकी बार भाजपा पर पूरे वेग से प्रहार करेगी। पर अप्रत्याशित रूप से सरकार ने भी कांग्रेस पर भरपूर ताकत से पलटवार का फैसला किया है। इस लिहाज से संसद का यह सत्र रोचक होने वाला है।

Sunday, June 21, 2015

कितना खिंचेगा ‘छोटा मोदी’ प्रकरण?

ललित मोदी प्रकरण ने कांग्रेस पार्टी और भारतीय जनता पार्टी को अपनी राजनीति ताकत आजमाने का एक मौका दिया है। मोदी को पहली बार इन हालात से गुजरने का मौका मिला है, इसलिए पहले हफ्ते में कुछ अटपटे प्रसंगों के बाद पार्टी संगठन, सरकार और संघ तीनों की एकता कायम हो गई है। कांग्रेस के लिए यह मुँह माँगी मुराद थी, जिसका लाभ उसे तभी मिला माना जाएगा, जब या तो वह राजनीतिक स्तर पर इससे कुछ हासिल करे या संगठन स्तर पर। उसकी सफलता फिलहाल केवल इतनी बात पर निर्भर करेगी कि वह कितने समय तक इस प्रकरण से खेलती रहेगी। राज्यसभा में विपक्ष के नेता गुलाम नबी आजाद ने गुरुवार को कहा कि अगर विदेश मंत्री सुषमा स्वराज और राजस्थान की मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने अपने पद से इस्तीफा नहीं दिया तो नरेंद्र मोदी के लिए संसद का सामना करना ‘नामुमकिन’ होगा। मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव सीताराम येचुरी ने भी तकरीबन इसी आशय का वक्तव्य दिया है।

Sunday, April 19, 2015

वापस लौटे 'नमो' और 'रागा' की चुनौतियाँ

पिछले हफ्ते दो महत्वपूर्ण नेताओं की घर वापसी हुई है। नरेंद्र मोदी यूरोप और कनाडा यात्रा से वापस आए हैं और राहुल गांधी तकरीबन दो महीने के अज्ञातवास के बाद। दोनों यात्राओं में किसी किस्म का साम्य नहीं है और न दोनों का एजेंडा एक था। पर दोनों देश की राजनीति के एक महत्वपूर्ण पड़ाव पर वापस घर आए हैं। नरेंद्र मोदी देश की वैश्विक पहचान के अभियान में जुटे हैं। उनके इस अभियान के दो पड़ाव चीन और रूस अभी और हैं जो इस साल पूरे होंगे। पर उसके पहले अगले हफ्ते देश की संसद में उन्हें एक महत्वपूर्ण अभियान को पूरा करना है। वह है भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को संसद से पास कराना। उनके मुकाबले राहुल गांधी हैं जिनका लक्ष्य है इस अध्यादेश को पास होने से रोकना। आज वे दिल्ली के रामलीला मैदान में किसानों की रैली का नेतृत्व करके इस अभियान का ताकतवर आग़ाज़ करने वाले हैं। दो विपरीत ताकतें एक-दूसरे के सामने खड़ी हैं।

Saturday, March 28, 2015

कांग्रेस का ‘मेक-ओवर’ मंत्र

दो महीने बाद जब नरेंद्र मोदी सरकार एक साल पूरा करेगी तब कांग्रेस पार्टी की विपक्ष के रूप में भूमिका का एक साल भी पूरा होगा। उस वक्त दोनों भूमिकाओं की तुलना करने का मौका भी होगा। फिलहाल कांग्रेस मेक-ओवर मोड में है। वह अपनी शक्लो-सूरत बदल रही है। सबसे ताजा उदाहरण है उसके प्रवक्ताओं और मीडिया पैनलिस्ट की सूची, जिसमें भारी संख्या में पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के बाल-बच्चे शामिल हैं। युवा और वैल कनेक्टेड शहरी। साथ में राहुल गांधी के करीबी। पार्टी के मेक-ओवर का यह नया मंत्र है। और राजनीतिक दर्शन माने फॉर्मूला है किसान, गाँव और गरीब। देश की ज्यादातर पार्टियों का सक्सेस मंत्र यही है।

Wednesday, March 25, 2015

कांग्रेस का मीडिया मेकओवर

कांग्रेस ने मंगलवार 25 मार्च को 21 पार्टी प्रवक्ताओं की नई सूची जारी की। इनमें 17 प्रवक्ता और 4 सीनियर प्रवक्ता हैं। इसके अलावा 31 लोगों को मीडिया और टीवी चैनलों के पैनल में कोऑर्डिनेट करने की जिम्मेदारी दी गई है। पूर्व प्रवक्ता अजय माकन को सीनियर प्रवक्ता बनाए रखा है। मीडिया पैनलिस्ट में राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी की बेटी शर्मिष्ठा मुखर्जी को शामिल किया गया है। वह टीवी चैनलों पर कांग्रेस का पक्ष रखेंगी। पार्टी ने हाल में रणदीप सुरजेवाला को अपने जनसम्पर्क विभाग का प्रमुख बनाया है। पार्टी की योजना अब बड़े स्तर पर जनसम्पर्क अभियान चलाने की है। इस टीम में मीडिया पैनेलिस्टों को छांटने में खासी मशक्कत की गई लगती है।

इतनी भारी-भरकम प्रवक्ता टीम पहली बार घोषित की गई है। इसमें बड़ी संख्या में राहुल गांधी के करीबी लोग शामिल हैं। इनकी औसत उम्र 40 साल है। टीम में दो महत्वपूर्ण नाम नहीं दिखाई पड़े। पहला नाम है जयराम रमेश का और दूसरा शशि थरूर का। शशि थरूर कई कारणों से विवादास्पद हो गए थे, पर जयराम रमेश तो अच्छे प्रवक्ता माने जाते रहे हैं। लगता है वे किसी और महत्वपूर्ण काम को सम्हालने जा रहे हैं। एक और महत्वपूर्ण नाम राशिद अल्वी का है जो इस सूची में नहीं है। सूची को देखने पर यह भी नजर आता है कि पार्टी अपने मेकओवर में प्रवक्ताओं को महत्व दे रही है। जितने संगठित तरीके से यह टीम घोषित की गई है यह पार्टी के इतिहास में पहली बार होता लगता है।

इन नामों पर गौर करें तो काफी बड़ी संख्या युवाओं की है, पर वरिष्ठ और अनुभवी नेता भी इनमें शामिल हैं। वरिष्ठ नेताओं की संतानों को भी इनमें जगह दी गई है। मसलन दीपेंद्र हुड्डा, आरपीएन सिंह, शर्मिष्ठा मुखर्जी, सलमान सोज़, परिणीति शिंदे, सुष्मिता देव, अमित देशमुख, रश्मिकांत, गौरव गोगोई वगैरह।

अजय माकन, सीपी जोशी, सत्यव्रत चतुर्वेदी और शकील अहमद को सीनियर प्रवक्ता के तौर पर शामिल किया है। इसके अलावा पार्टी के सीनियर प्रवक्ताओं में आनंद शर्मा, गुलाम नबी आजाद, मुकुल वासनिक, पी चिदंबरम और सलमान खुर्शीद पहले से ही शामिल हैं। इस सूची के घोषित होने के बाद मीडिया को अभी यह बताने वाला कोई नहीं है कि राहुल गांधी कहाँ हैं और कब आने वाले हैं।

यह है पूरी लिस्ट

सीनियर प्रवक्ता- आनंद शर्मा, गुलाम नबी आजाद, मुकुल वासनिक, पी चिदंबरम, सलमान खुर्शीद,अजय माकन, सीपी जोशी, सत्यव्रत चतुर्वेदी, शकील अहमद।

प्रवक्ता- अभिषेक सिंघवी, अजय कुमार, ज्योतिरादित्य सिंधिया, पी सी चाको, राज बब्बर, रीता बहुगुणा जोशी, संदीप दीक्षित, संजय झा, शक्ति सिंह गोहिल और शोभा ओझा की मौजूदा टीम के अतिरिक्त पार्टी प्रवक्ता होंगे भक्त चरणदास, दीपेंद्र हुड्डा, दिनेश गुंडूराव, गौरव गोगोई, खुशबू सुंदर, मधु गौड़, मीम अफजल, प्रियंका चतुर्वेदी, पीएल पुनिया, राजीव गौड़ा, राजीव सत्व, रजनी पाटिल, आरपीएन सिंह, सुष्मिता देव, टॉम वडक्कन, विजेंद्र सिंगला।

मीडिया पैनलिस्ट- अखिलेश प्रताप सिंह, आलोक शर्मा, एमी याग्निक, अमित देशमुख, अनंत गाडगिल, अशोक तंवर, बालचंद्र मुंगेरकर, ब्रजेश कलप्पा, चंदन यादव, चरण सिंह सापरा, सीआर केशवन, देवव्रत सिंह, हुसैन दलवी, जगवीर शेरगिल, जीतू पटवारी, मनीष तिवारी, मुकेश नायक, नदीम जावेद, नासिर हुसैन, प्रेमचंद मिश्रा, परणीति शिंदे, रागिनी नायक, राजीव शुक्ला, रंजीता रंजन, रश्मिकांत, सलमान सोज, संदीप चौधरी, संजय निरुपम, शर्मिष्ठा मुखर्जी, डॉ विष्णु।


Friday, March 20, 2015

क्या ‘मोदी मैजिक’ को तोड़ सकती है कांग्रेस?

सोनिया गांधी ‘सेक्युलर’ ताकतों को एक साथ लाने में कामयाब हुईं हैं. पिछले साल लोकसभा चुनाव के पहले इस किस्म का गठजोड़ बनाने की कोशिश हुई थी, पर उसका लाभ नहीं मिला. राज्यों के विधानसभा चुनावों में इसकी कोशिश नहीं हुई. केवल उत्तर प्रदेश, बिहार और राजस्थान के उपचुनावों में इसका लाभ मिला. उसके बाद दिल्ली के विधानसभा चुनाव में प्रत्यक्ष और परोक्ष रूप में यह एकता दिखाई दी. निष्कर्ष यह है कि जहाँ मुकाबला सीधा है वहाँ यदि एकता कायम हुई तो मोदी मैजिक नहीं चलेगा.

क्या इस कांग्रेस भाजपा विरोधी मोर्चे का नेतृत्व कांग्रेस करेगी? पिछले हफ्ते की गतिविधियों के आधार पर यह निष्कर्ष निकालने की जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए. भूमि अधिग्रहण विधेयक को लेकर सोनिया गांधी के नेतृत्व में 14 पार्टियों के नेतृत्व में राष्ट्रपति भवन तक हुआ मार्च कई मानों में प्रभावशाली था, पर इसमें विपक्ष की तीन महत्वपूर्ण पार्टियाँ शामिल नहीं थीं. संयोग है कि तीनों विपक्ष की सबसे ताकतवर पार्टियाँ हैं. अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल और बसपा की अनुपस्थिति को भी समझने की जरूरत है. कह सकते हैं कि मोदी-रथ ढलान पर उतरने लगा है, पर अभी इस बात की परीक्षा होनी है. और अगला परीक्षण स्थल है बिहार.

Tuesday, December 30, 2014

‘छवि’ की राजनीति से घिरी कांग्रेस

कांग्रेस के लिए आने वाला साल चुनौतियों से भरा है। चुनौतियाँ बचे-खुचे राज्यों में इज्जत बचाए रखने और अपने संगठनात्मक चुनावों को सम्पन्न कराने की हैं। साथ ही पार्टी के भीतर सम्भावित बगावतों से निपटने की भी। पर उससे बड़ी चुनौती पार्टी के वैचारिक आधार को बचाए रखने की है। इस हफ्ते अचानक खबर आई कि राहुल गांधी ने पार्टी के महासचिवों से कहा है कि वे कार्यकर्ताओं से सम्पर्क करके पता करें कि क्या हमारी छवि हिन्दू विरोधी पार्टी के रूप में देखी जा रही है। लगता है कि राहुल का आशय केवल हिन्दू विरोधी छवि के सिलसिले में पता लगाना ही नहीं है, बल्कि पार्टी की सामान्य छवि को समझने का है। राहुल ने यह काम देर से शुरू किया है। खासतौर से पराजय के बाद किया है। इसके खतरे भी हैं। पिछले तीनेक दशक में कांग्रेस संगठन हाईकमान-मुखी हो गया है। कार्यकर्ता जानना चाहता है कि हाईकमान का सोच क्या है। पार्टी के भीतर नीचे से ऊपर की ओर विचार-विमर्श की कोई पद्धति नहीं है। यह दोष केवल कांग्रेस का दोष नहीं है। भारतीय जनता पार्टी से लेकर जनता परिवार से जुड़ी सभी पार्टियों में यह कमी दिखाई देगी। आम आदमी पार्टी ने इस दोष को रेखांकित करते हुए ही नए किस्म की राजनीति शुरू की थी, पर कमोबेश वह भी इसकी शिकार हो गई।

Sunday, December 28, 2014

हिन्दू विरोधी नहीं उलझनों भरी पार्टी है कांग्रेस

'हिंदू विरोधी’ छवि कांग्रेस के पतन का कारण ?

  • 1 घंटा पहले
राहुल गांधी, सोनिया गांधी, कांग्रेस
लोकसभा चुनावों में हार के बाद विभिन्न राज्यों के विधानसभा चुनावों के नतीजे कांग्रेस पार्टी के लिए निराशाजनक रहे हैं.
मीडिया में आई ख़बरों के अनुसार पार्टी अपनी 'बिगड़ती छवि' पर चिंतन करने के मूड में है. वहीं यह भी कहा गया कि एक के बाद एक हार मिलने की वजह है पार्टी की 'हिंदू विरोधी' छवि.
हालांकि कांग्रेस के बारे में ऐसे बयान नए नहीं हैं.
लेकिन पार्टी की लोकप्रियता में कमी के कारण शायद कुछ और हैं, जिन्हें समझने के लिए ज़रूरी आत्ममंथन से पार्टी शायद गुज़रना नहीं चाहती?

पढ़ें, लेख विस्तार से

राहुल गांधी, कांग्रेस
कांग्रेस क्या वास्तव में अपनी बिगड़ती छवि से परेशान है? या इस बात से कि उसकी छवि बिगाड़कर ‘हिंदू विरोधी’ बताने की कोशिश की जा रही हैं?
इससे भी बड़ा सवाल यह है कि वह अपनी बदहाली के कारणों को समझना भी चाहती है या नहीं?
छवि वाली बात कांग्रेस के आत्ममंथन से निकली है. पर क्या वह स्वस्थ आत्ममंथन करने की स्थिति में है? आंतरिक रूप से कमज़ोर संगठन का आत्ममंथन उसके संकट को बढ़ा भी सकता है.
अस्वस्थ पार्टी स्वस्थ आत्ममंथन नहीं कर सकती. कांग्रेस लम्बे अरसे से इसकी आदी नहीं है. इसे पार्टी की प्रचार मशीनरी की विफलता भी मान सकते हैं. और यह भी कि वह राजनीति की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ में फेल हो रही है.

आरोप नया नहीं

सोनिया गांधी, कांग्रेस
यह मामला केवल ‘हिंदू विरोधी छवि’ तक सीमित नहीं है.
पचास के दशक में जब हिंदू कोड बिल पास हुए थे, तबसे कांग्रेस पर हिंदू विरोधी होने के आरोप लगते रहे हैं पर कांग्रेस की लोकप्रियता में तब कमी नहीं आई.
साठ के दशक में गोहत्या विरोधी आंदोलन भी उसे हिंदू विरोधी साबित नहीं कर सका.
वस्तुतः इसे कांग्रेस के नेतृत्व, संगठन और विचारधारा के संकट के रूप में देखा जाना चाहिए. एक मोर्चे पर विफल रहने के कारण पार्टी दूसरे मोर्चे पर घिर गई है.
कांग्रेस की रणनीति यदि सांप्रदायिकता विरोध और धर्मनिरपेक्षता की है, तो वह उसे साबित करने में विफल रही.

Saturday, December 27, 2014

मोदी के अलोकप्रिय होने का इंतज़ार करती कांग्रेस

सन 2014 कांग्रेस के लिए खौफनाक यादें छोड़ कर जा रहा है। इस साल पार्टी ने केवल लोकसभा चुनाव में ही भारी हार का सामना नहीं किया, बल्कि आंध्र प्रदेश, उड़ीसा, हरियाणा, महाराष्ट्र, सिक्किम के बाद अब जम्मू-कश्मीर और झारखंड विधान सभाओं में पिटाई झेली है। यह सिलसिला पिछले साल से जारी है। पिछले साल के अंत में उसे राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीस गढ़ और दिल्ली में यह हार गले पड़ी थी। हाल के वर्षों में उसे केवल कर्नाटक, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखंड में सफलता मिली है। आंध्र के वोटर ने तो उसे बहुत बड़ी सज़ा दी। प्रदेश की विधान सभा में उसका एक भी सदस्य नहीं है। चुनाव के ठीक पहले तक उसकी सरकार थी। कांग्रेस ने सन 2004 में दिल्ली में सरकार बनाने की जल्दबाज़ी में तेलंगाना राज्य की स्थापना का संकल्प ले लिया था। उसका दुष्परिणाम उसके सामने है।

Sunday, December 21, 2014

कांग्रेस का सबसे डरावना साल

कांग्रेस के लिए यह साल आसमान से जमीन पर गिरने का साल था। दस साल पहले कुछ ऐसी परिस्थितियाँ बनीं जिनमें कांग्रेस पार्टी को न केवल सत्ता में आने का मौका मिला बल्कि नेहरू-गांधी परिवार को फिर से पार्टी की बागडोर हाथ में लेने का पूरा मौका मिला। इस साल अचानक सारी योजना फेल हो गई और अब पार्टी गहरे खड्ड की और बढ़ रही है। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को सबसे बड़ी पराजय का सामना करना पड़ा। उसके ठीक पहले और बाद में हुए सभी विधानसभा चुनावों में भी उसकी हार हुई। इन दिनों हो रहे जम्मू-कश्मीर और झारखंड विधानसभा चुनावों के परिणाम 23 दिसम्बर को आने के बाद पराभव का पहिया एक कदम और आगे बढ़ जाएगा।

Sunday, October 26, 2014

कांग्रेस की गांधी-छत्रछाया


पी चिदंबरम के ताज़ा वक्तव्य से इस बात का आभास नहीं मिलता कि कांग्रेस के भीतर परिवार से बाहर निकलने की कसमसाहट है। बल्कि विनम्रता के साथ कहा गया है कि सोनिया गांधी और राहुल को ही पार्टी का भविष्य तय करना चाहिए। हाँ, सम्भव है भविष्य में नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का कोई नेता पार्टी अध्यक्ष बन जाए। इस वक्त पार्टी का मनोबल बहुत गिरा हुआ है। इस तरफ तत्परता से ध्यान देने और पार्टी में आंतरिक परिवर्तन करने का अनुरोध उन्होंने ज़रूर किया। पर यह अनुरोध भी सोनिया और राहुल से है। साथ ही दोनों से यह अनुरोध भी किया कि वे जनता और मीडिया से ज्यादा से ज्यादा मुखातिब हों। इस मामले में उन्होंने भाजपा को कांग्रेस से ज्यादा अंक दिए हैं।

Sunday, September 14, 2014

कांग्रेस : अबके डूबे तो...

हरियाणा और महाराष्ट्र के चुनावों की तारीख आने के साथ देश के राजनीतिक-मंथन का अगला दौर शुरू हो गया है। इस दौर में भारतीय जनता पार्टी और कांग्रेस दोनों की ताकत और कमज़ोरियों का परीक्षण होगा। बिहार और उत्तर प्रदेश के उपचुनावों से निष्कर्ष नहीं निकाले जा सकते। बिहार में कांग्रेस, जदयू और राजद के महागठबंधन ने बेशक भाजपा-विरोधी विरोधी मोर्चे की सम्भावनाओं की राह दिखाई है, पर यह राष्ट्रीय प्रवृत्ति नहीं हो सकती। उत्तर प्रदेश के उप-चुनावों से बसपा ने अलग होकर सपा और कांग्रेस को कोई संदेश दिया है या भाजपा को रोकने की उत्तर प्रदेश रणनीति की और इशारा किया है यह चुनाव परिणाम आने के बाद ही कहा जा सकेगा। पर इसमें दो राय नहीं कि सबसे ज्यादा फज़ीहत जिस पार्टी की है वह है कांग्रेस। देखना यह है कि लोकसभा चुनाव के दौरान पैदा हुई मोदी-लहर अभी प्रभावी है या नहीं। अलबत्ता इन दोनों राज्यों में प्रचार के लिए मोदी जाने वाले हैं। उनके मुकाबले कांग्रेस के पास सोनिया और राहुल की जोड़ी है। क्या वह काम करेगी?

Wednesday, August 6, 2014

जितना महत्वपूर्ण है इतिहास बनना, उतना ही जरूरी है उसे लिखा जाना

संजय बारू के बाद नटवर सिंह की किताब का निशाना सीधे-सीधे नेहरू-गांधी परिवार है। देश का सबसे महत्वपूर्ण राजनीतिक परिवार आज से नहीं कई दशकों से राजनीतिक निशाने पर है। इसका सबसे बड़ा कारण यही है कि इस परिवार ने सबसे ज्यादा समय तक सत्ता में भागीदारी की। केवल सत्ता का सामान्य भोग ही नहीं किया, काफी इफरात से किया। इस वक्त कांग्रेस इस परिवार का पर्याय है। अब मनमोहन सिंह की बेटी दमन सिंह की किताब 'स्ट्रिक्टली पर्सनल : मनमोहन एंड गुरशरण' आने वाली है। दमन सिंह ने यह किताब मनमोहन सिंह पर एक व्यक्ति के रूप में लिखे जाने का दावा किया है, प्रधानमंत्री मनमोहन पर नहीं। अलबत्ता 5 अगस्त के टाइम्स ऑफ इंडिया में सागरिका घोष के साथ इंटरव्यू में कही गई बातों से लगता है कि मनमोहन सिंह के पास भी कहने को कुछ है। दमन सिंह ने मनमोहन सिंह के पीवी नरसिम्हाराव और इंदिरा गांधी के साथ रिश्तों पर तो बोला है, पर सोनिया गांधी से जुड़े सवाल पर वे कन्नी काट गईं और कहा कि यह सवाल उनसे (यानी मनमोहन सिंह से) ही करिेेए। इससे यह भी पता लगेगा कि नेहरूवादी आर्थिक दर्शन से जुड़े रहे मनमोहन सिंह ग्रोथ मॉडल पर क्यों गए और भारत के व्यवस्थागत संकट को लेकर उनकी राय क्या है। इस किताब को मैने भी मँगाया है। रिलीज होने के बाद मिलेगी। फिलहाल जो दो-तीन किताबें सामने आईं हैं या आने वाली हैं, उनसे  भारत की राजनीति के पिछले ढाई दशक पर रोशनी पड़ेगी। इनसे देश की राजनीतिक संस्कृति और सिस्टम के सच का पता भी लगेगा। यह दौर आधुनिक भारत का सबसे महत्वपूर्ण दौर रहा है।  नीचे मेरा लेख है, जो मुंबई से प्रकाशित दैनिक अखबार एबसल्यूट इंडिया में प्रकाशित हुआ है।


ऐसे ही तो लिखा जाता है इतिहास
यूपीए सरकार के दस साल, उसमें शामिल सहयोगी दलों की करामातें, सोनिया गांधी का त्याग, मनमोहन सिंह की मजबूरियाँ और राहुल गांधी की झिझक से जुड़ी पहेलियाँ नई-नई शक्ल में सामने आ रही हैं। संजय बारू ने 'एक्सीडेंटल पीएम लिखकर जो फुलझड़ी छोड़ी थी उसने कुछ और किताबों और संस्मरणों को जन्म दिया है। इस हफ्ते दो किताबों ने कहानी को रोचक मोड़ दिए हैं। कहना मुश्किल है कि सोनिया गांधी किताब लिखने के अपने वादे को पूरा करेगी या नहीं, पर उनके लिखे जाने की सम्भावना ने ही माहौल को रोचक और जटिल बना दिया है। अभी तक कहानी एकतरफा थी। यानी लिखने वालों पर कांग्रेस विरोधी होने का आरोप लगता था। पर मनमोहन सिंह की बेटी दमन सिंह ने भी माना है कि पार्टी के भीतर मनमोहन सिंह का विरोध होता था।

Sunday, July 27, 2014

भँवर में फँसी कांग्रेस

कांग्रेस अपनी तार्किक परिणति की ओर बढ़ रही है। देश-काल से कदम-ताल न कर पाना यानी इतिहास के कूड़ेदान में चले जाना। कांग्रेस क्या कूड़ेदान जाने वाली है? या बाउंसबैक करेगी जैसा कि तीन मौकों पर उसने किया है? उत्तराखंड से आए तीन उपचुनाव परिणामों को पार्टी अपनी सफलता मान सकती है। पर यह पार्टी का पुनरोदय नहीं है। ज्यादा से ज्यादा भाजपा की विफलता है। पिछले हफ्ते कांग्रेस को एक के बाद एक कई झटके लगे हैं। असम के विधायकों ने बग़ावत कर दी। स्वास्थ्य मंत्री हेमंतो बिसवा सर्मा के नेतृत्व में विधायकों ने राज्यपाल को इस्तीफ़ा सौंपा। महाराष्ट्र के उद्योग मंत्री नारायण राणे ने इस्तीफ़ा दिया। हरियाणा में चौधरी वीरेन्द्र सिंह ने भूपेंद्र सिंह हुड्डा के नेतृत्व में विधानसभा चुनाव लड़ने से इनकार कर दिया। बंगाल में भी भगदड़ मची है। तीन और विधायकों ने पार्टी छोड़ी। सन 2011 से अब तक सात विधायक पार्टी छोड़ चुके हैं। पार्टी के विधायकों की संख्या 42 से घटकर 35 रह गई है। जम्मू-कश्मीर में चुनाव के साल भगदड़ मची है। नेशनल कॉन्फ्रेंस ने पांच साल पुराना रिश्ता तोड़ लिया है। पूर्व सांसद लाल सिंह का पार्टी छोड़ना कंगाली में आटा गीला होने की तरह है। झारखंड में भी पार्टी के भीतर बगावत के स्वर हैं।

Thursday, June 5, 2014

अब संसद में होगा कांग्रेसी सेहत का पहला टेस्ट

 गुरुवार, 5 जून, 2014 को 08:09 IST तक के समाचार
राहुल गांधी, सोनिया गांधी, मनमोहन सिंह
पिछले साल जून में भाजपा के चुनाव अभियान का जिम्मा सम्हालने के बाद नरेंद्र मोदी ने अपनी पार्टी के कार्यकर्ताओं से 'कांग्रेस मुक्त भारत निर्माण' के लिए जुट जाने का आह्वान किया था.
उस समय तक वे अपनी पार्टी की ओर से प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी नहीं बने थे. उन्होंने इस बात को कई बार कहा था.
सोलहवीं क्लिक करेंसंसद के पहले सत्र में मोदी सरकार की नीतियों पर रोशनी पड़ेगी. संयुक्त अधिवेशन में राष्ट्रपति का अभिभाषण सरकार का पहला नीतिपत्र होगा. इसके बाद बजट सत्र में सरकार की असली परीक्षा होगी.
एक परीक्षा कांग्रेस पार्टी की भी होगी. उसके अस्तित्व का दारोमदार भी इस सत्र से जुड़ा है. आने वाले कुछ समय में कुछ बातें कांग्रेस का भविष्य तय करेंगी. इनसे तय होगा कि कांग्रेस मज़बूत विपक्ष के रूप में उभर भी सकती है या नहीं.

सबसे कमज़ोर प्रतिनिधित्व

मोदी की बात शब्दशः सही साबित नहीं हुई लेकिन सोलहवीं लोकसभा में बिलकुल बदली रंगत दिखाई दे रही है. कांग्रेस के पास कुल 44 सदस्य हैं. पार्टी उपाध्यक्ष राहुल गांधी की उम्र से एक ज्यादा. लोकसभा के इतिहास में पहली बार कांग्रेस इतनी क्षीणकाय है.

Tuesday, May 20, 2014

मोदी-आंधी बनाम ‘खानदान’ गांधी

मंजुल का कार्टून
हिंदू में सुरेंद्र का कार्टून

कांग्रेस कार्यसमिति की बैठक में सोनिया गांधी और राहुल गांधी के इस्तीफों की पेशकश नामंजूर कर दी गई। इस पेशकश के स्वीकार होने की कल्पना भी नहीं की जा सकती। गांधी परिवार के बगैर अब कांग्रेस का कोई मतलब नहीं है। कांग्रेस को जोड़े रखने का एकमात्र फैविकॉल अब यह परिवार है। संयोग से कांग्रेस की खराबी भी यही मानी जाती है। कांग्रेस के नेता एक स्वर से कह रहे हैं कि पार्टी फिर से बाउंसबैक करेगी। 16 मई को हार की जिम्मेदारी लेते हुए राहुल और सोनिया ने कहा था कि हम अपनी नीतियों और मूल्यों पर चलते रहेंगे। बहरहाल अगला एक साल कांग्रेस और एनडीए दोनों के लिए महत्वपूर्ण होगा। मोदी सरकार को अपनी छाप जनता पर डालने के लिए कदम उठाने होंगे, वहीं कांग्रेस अब दूने वेग से उसपर वार करेगी।  

अभी तक कहा जाता था कि वास्तविक सार्वदेशिक पार्टी सिर्फ कांग्रेस है। सोलहवीं लोकसभा में दस राज्यों से कांग्रेस का एक भी प्रतिनिधि नहीं है। क्या यह मनमोहन सिंह की नीतियों की पराजय है? एक मौन और दब्बू प्रधानमंत्री को खारिज करने वाला जनादेश? पॉलिसी पैरेलिसिस के खिलाफ जनता का गुस्सा? या नेहरू-गांधी परिवार का पराभव? क्या कांग्रेस इस सदमे से बाहर आ सकती है? शुक्रवार की दोपहर पार्टी अध्यक्ष सोनिया गांधी और राहुल गांधी ने एक संक्षिप्त संवाददाता सम्मेलन में अपनी हार और उसकी जिम्मेदारी स्वीकार की। पर पाँच मिनट के उस एकतरफा संवाद से ऐसा महसूस नहीं हुआ कि पार्टी अंतर्मंथन की स्थिति में है या उसे कोई पश्चाताप है। फिलहाल चेहरों पर आक्रोश दिखाई पड़ता है। पार्टी के नेता स्केयरक्रोयानी मोदी का डर दिखाने वाली अपनी राजनीति के आगे सोच नहीं पा रहे हैं। वे अब भी मानते हैं कि उनके अच्छे काम जनता के सामने नहीं रखे जा सके। इसके लिए वे मीडिया को कोस रहे हैं।

चुनाव परिणाम आने के दो दिन पहले से कांग्रेसियों ने एक स्वर से बोलना शुरू कर दिया था कि हार हुई तो राहुल गांधी इसके लिए जिम्मेदार नहीं होंगे। कमलनाथ ने तो सीधे कहा कि वे सरकार में नहीं थे। कहीं गलती हुई भी है तो सरकार से हुई है, जो अपने अच्छे कामों से जनता को परिचित नहीं करा पाई। यानी हार का ठीकरा मनमोहन सिंह के सिर पर। पिछले दो साल के घटनाक्रम पर गौर करें तो हर बार ठीकरा सरकार के सिर फूटता था। और श्रेय देना होता था तो राहुल या सोनिया की जय-जय।