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Sunday, June 14, 2020

राजनीति का आभासी दौर!

कोविड-19 के वैश्विक हमले के कारण एक अरसे की अराजकता के बाद रथ का पहिया वापस चलने लगा है। आवागमन शुरू हो गया है, दफ्तर खुलने लगे हैं और कारखानों की चिमनियों से धुआँ निकलने लगा है। कोरोना ने जो भय पैदा किया था, वह खत्म नहीं हुआ है। पर दुनिया का कहना है कि सब कुछ बंद नहीं होगा। गति बदलेगी, चाल नहीं। उत्तर कोरोना परिदृश्य के तमाम पहलू हमारे जीवन की दशा और दिशा को बदलेंगे। रहन-सहन, खान-पान, सामाजिक सम्पर्क और सांस्कृतिक जीवन सब कुछ बदलेगा। सिनेमाघरों, रंगमंचों और खेल के मैदानों का रंग-रूप भी। खेल बदलेंगे, खिलाड़ी बदलेंगे। सवाल है क्या राजनीति भी बदलेगी?

जनवरी-फरवरी के बाद के वैश्विक परिदृश्य पर नजर डालें, तो पहली नजर में लगता है कि बीमारी ने राजनीति को पृष्ठभूमि में धकेल दिया। हम एक नई दुनिया में प्रवेश करने जा रहे हैं, जहाँ मनुष्य के हित सर्वोपरि होंगे, स्वार्थों के टकराव खत्म होंगे, जो राजनीति की कुटिलता के साथ रूढ़ हो गए हैं। वास्तव में ऐसा हुआ नहीं, बल्कि पृष्ठभूमि में राजनीति चलती रही। दुनिया की बात छोड़िए, हमारे देश में लॉकडाउन की घोषणा के ठीक पहले मध्य प्रदेश में सत्ता परिवर्तन हुआ। उस दौरान दोनों तरफ से खुलकर राजनीति हुई। कोरोना के बावजूद विधानसभा की बैठक हुई। नई सरकार आई। संसद के सत्र को लेकर बयानबाज़ी हुई, प्रवासी मजदूरों के प्रसंग के पीछे प्रत्यक्ष राजनीति थी। लॉकडाउन की घोषणा भी। 

Sunday, November 5, 2017

स्वांग रचती सियासत


पिछले मंगलवार को संसद भवन में सरदार पटेल के जन्मदिवस के सिलसिले में हुए समारोह की तस्वीरें अगले रोज के अखबारों में छपीं। ऐसी तस्वीरें भी थीं, जिनमें राहुल गांधी नरेन्द्र मोदी के सामने से होकर गुजरते नजर आते हैं। कुछ तस्वीरों से लगता था कि मोदी की तरफ राहुल तरेर कर देख रहे हैं। यह तस्वीर तुरत सोशल मीडिया में वायरल हो गई। यह जनता की आम समझ से मेल खाने वाली तस्वीर थी। दुश्मनी, रंज़िश और मुकाबला हमारे जीवन में गहरा रचा-बसा है। मूँछें उमेठना, बाजुओं को फैलाना, ताल ठोकना और ललकारना हमें मजेदार लगता है।
जाने-अनजाने हमारी लोकतांत्रिक शब्दावली में युद्ध सबसे महत्वपूर्ण रूपक बनकर उभरा है। चुनाव के रूपक संग्राम, जंग और लड़ाई के हैं। नेताओं के बयानों को ब्रह्मास्त्र और सुदर्शन चक्र की संज्ञा दी जाती है। यह आधुनिक लोकतांत्रिक स्वस्थ प्रतिस्पर्धा नहीं लगती, बल्कि महाभारत की सामंती लड़ाई जैसी लगती है। इस बात की हम कल्पना ही नहीं करते कि कभी सत्तापक्ष किसी मसले पर विपक्ष की तारीफ करेगा और विपक्ष किसी सरकारी नीति की प्रशंसा करेगा।