Monday, October 30, 2017

बैंक-सुधार में भी तेजी चाहिए

केंद्र सरकार ने पिछले मंगलवार को सार्वजनिक क्षेत्र के संकटग्रस्त बैंकों में 2.11 लाख करोड़ रुपये की नई पूँजी डालने की घोषणा दो उद्देश्यों से की है। पहला लक्ष्य इन बैंकों को बचाने का है, पर अंततः इसका उद्देश्य अर्थ-व्यवस्था को अपेक्षित गति देने का है। पिछले एक दशक से ज्यादा समय में देश के राष्ट्रीयकृत बैंकों ने जो कर्ज दिए थे, उनकी वापसी ठीक से नहीं हो पाई है। बैंकों की पूँजी चौपट हो जाने के कारण वे नए कर्जे नहीं दे पा रहे हैं, इससे कारोबारियों के सामने मुश्किलें पैदा हो रही हैं। इस वजह से अर्थ-व्यवस्था की संवृद्धि गिरती चली गई।


इस वक्त देश की बैंकिंग ऋण-वृद्धि 25 साल के निम्नतम स्तर पर है। निजी निवेश ठप सा हो गया है। इसका असर नए रोजगारों पर पड़ा है। हमारे यहाँ सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की देश की कुल बैंकिंग-प्रणाली में 70 फीसदी की हिस्सेदारी है। सरकार ने इसके अलावा सड़क निर्माण के एक ऐतिहासिक कार्यक्रम की घोषणा की है साथ ही छोटे और मझोले उद्योगों की संवृद्धि के लिए कुछ कार्यक्रम बनाए हैं।

मंगलवार को ही सरकार ने देश में आज तक के सबसे बड़े राजमार्ग-निर्माण कार्यक्रम की घोषणा भी की। इसके तहत 6.92 हजार करोड़ रुपये की लागत से करीब 83,677 किलोमीटर लम्बे राजमार्ग बनाए जाएंगे। सड़क निर्माण की यह योजना देश के इंफ्रास्ट्रक्चर के लिए जरूरी है, साथ ही इसके सहारे काफी बड़ी संख्या में लोगों को रोजगार मिलेगा।

मोटा अनुमान है कि इस कार्यक्रम के सहारे अगले पाँच वर्ष में रोजगार के कम से कम 14.2 करोड़ मानव दिवस सृजित होंगे। इसमें भारतमाला कार्यक्रम भी शामिल है, जिसके तहत 34,800 किलोमीटर लम्बे राजमार्ग बनाए जाएंगे। भारतमाला के तहत 9,000 किलोमीटर लम्बे आर्थिक कॉरिडोर की योजना है, जो कारोबारी गतिविधियों के लिए जरूरी है। इससे एक इलाके से चला माल दूसरे इलाके तक पहुँचने में कम समय लगेगा। इन कार्यक्रमों के अलावा प्रधानमंत्री ग्राम सड़क योजना के तहत केन्द्र और राज्य सरकारें 88,185 करोड़ रुपये की लागत से अगले तीन साल में ग्रामीण सड़कों का निर्माण करेंगी। इसी तरह 11,000 करोड़ रुपये की लागत से उन राज्यों में सड़क निर्माण का कार्य शुरू होने जा रहा है, जो नक्सली आतंकवाद से पीड़ित हैं। 

सरकार की इन घोषणाओं का अर्थ-शास्त्रियों ने आमतौर पर स्वागत किया है, पर इन सब बातों से जुड़े दो संदेह हैं। पहला, राजकोषीय घाटे को लेकर है। हालांकि सरकार ने बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए विशेष बॉण्ड लाने की बात कही है। अलबत्ता इस वित्त वर्ष के अंत तक स्पष्ट होगा कि राजकोषीय घाटा जीडीपी के 4 फीसदी के आसपास पहुँचा या नहीं। पिछले वर्ष यह 3.5 फीसदी था और इसे 3.2 फीसदी पर लाना था। दूसरा संदेह इस बात को लेकर है कि क्या अब देश में निजी पूँजी निवेश बढ़ेगा या नहीं। इस साल के बजट में सरकार ने 3,09,801 लाख करोड़ के जबर्दस्त पूँजीगत व्यय की घोषणा की थी। इन सारे खर्चों का लक्ष्य आर्थिक गतिविधियों में जबर्दस्त तेजी लाना है। वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा है कि हम आर्थिक संवृद्धि की गति को बनाए रखना चाहते हैं।  

सन 2014 में आई मोदी सरकार के सामने पहले रोज से ही बैंकों की माली हालत खराब होने की समस्या खड़ी है। बैंक प्रणाली के अस्त-व्यस्त हो जाने से वैश्विक रेटिंग एजेंसियाँ भारत की रेटिंग में सुधार करने को तैयार नहीं हैं। रेटिंग एजेंसी फिच का अनुमान है कि मार्च 2019 तक इन बैंकों को करीब 65 अरब डॉलर (करीब चार लाख करोड़ रुपये) की पूँजी चाहिए। अब सरकार ने उसकी आधी पूँजी का इंतजाम किया है। बैंकों को अपनी पूँजी वापस लाने और कर्ज नहीं लौटा पाने वाली कम्पनियों को दिवालिया घोषित कराने के लिए भी साधनों की जरूरत है। दूसरी ओर आर्थिक गतिविधियों के संचालन के लिए उद्योग जगत को लगातार पूँजी चाहिए। इसके अलावा इन बैंकों की प्रशासनिक व्यवस्था में भी तेजी से बदलाव की जरूरत है।

आर्थिक मंदी के अलावा बैंकों की नादानी की वजह से भी काफी पूँजी फँसी रह गई। वित्तमंत्री ने यह घोषणा भी की है कि बैंकिंग क्षेत्र में और सुधारों को भी लागू किया जाएगा। सुधारों की इस श्रृंखला की घोषणा अगले कुछ माह में होगी। जून, 2017 में बैंकों की गैर निष्पादित आस्तियां (एनपीए) बढ़कर 7.33 लाख करोड़ रुपये हो गईं थीं. मार्च, 2015 में यह 2.75 लाख करोड़ रुपये थी।

वित्तीय सेवा प्रदाता मॉर्गन स्टैनली का कहना है कि सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में अतिरिक्त पूंजी डालने की सरकार की योजना से रुपये को मजबूती मिलेगी। संस्था की एक रपट के अनुसार इससे निजी क्षेत्र का पूंजीगत व्यय फिर शुरू होने और घरेलू शेयर बाजारों में विदेशी निवेशकों का रुझान बढ़ाने में मदद मिलने की उम्मीद है। रपट के अनुसार, मजबूत वृद्धि और भारतीय रुपये का शेयर बाजारों के साथ अंतर संबंध मुद्रा को मजबूत करने में मदद करेगा।

इस पूरे घटनाक्रम में बाजार और निजी क्षेत्र के मुकाबले राज्य की महत्वपूर्ण भूमिका स्थापित हुई है। इसका मतलब है कि भारत की पूँजी व्यवस्था अभी काफी कमजोर है। और यह भी कि आर्थिक मामलों में समय-समय पर सरकारी हस्तक्षेप की जरूरत अभी बनी रहेगी। सरकारी हस्तक्षेप के कारण देश के सार्वजनिक बैंकों का संकट टल जाएगा, पर इस बात को याद रखना चाहिए कि इस संकट के पीछे बैंकों का अकुशल और काफी हद तक भ्रष्ट प्रशासन था। निजी क्षेत्र होता तो ये सारे बैंक तबाह हो जाते। इन्हें बचाकर हम इनके दोष को ढँक रहे हैं। इनकी तिकड़मों में राजनीतिक गठजोड़ भी था।

भारत की राज-व्यवस्था ज्यादातर मौकों पर हस्तक्षेप करके संकट को टालती रही है। पर लोक-लुभावन राजनीति के कारण वह आर्थिक सुधारों को भी टालती रही। यूपीए सरकार ने अपने दोनों दौरों में आर्थिक सुधारों को टाला, जिसका दुष्परिणाम हमें देखने को मिल रहा है। बेशक भारतीय जनता पार्टी ने भी राजनीतिक कारणों से यूपीए के दौर के सुधार कार्यक्रमों का विरोध किया था। यह हमारी राजनीति का दोष है। उसे राष्ट्रीय हितों और राजनीतिक हितों में अंतर करना चाहिए। बहरहाल हमें अब इन फैसलों के प्रभाव का इंतजार करना होगा। नवंबर में दूसरी तिमाही के आर्थिक परिणाम आएंगे। अंदेशा है कि परिणाम खास अच्छे नहीं होंगे। इससे अगली दो तिमाहियों में ही बेहतर परिणामों की आशा करनी चाहिए।


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