Sunday, June 18, 2017

किसानों की बदहाली पर राजनीति

हाल में मंदसौर में हुए गोलीकांड के बाद ऐसा लग रहा है कि देश का किसान असंतुष्ट ही नहीं, बुरी तरह नाराज है। मंदसौर में जली हुई बसों की टीवी फुटेज को देखकर लगता है कि हाल में ऐसा कुछ हुआ है, जिसके कारण उसकी नाराजगी बढ़ी है। हाल में दो साल लगातार मॉनसून फेल होने के बावजूद किसान हिंसक नहीं हुआ। अब लगातार दो साल बेहतर अन्न उत्पादन के बावजूद वह इतना नाराज क्यों हो गया कि हिंसा की नौबत आ गई? किसानों की समस्याओं से इंकार नहीं किया जा सकता। पर कम से कम मंदसौर में किसान आंदोलन की राजनीतिक प्रकृति भी उजागर हुई है।

इसमें दो राय नहीं कि खेती-किसानी घाटे का सौदा बन चुकी है। उन्हें अपने उत्पाद का सही मूल्य नहीं मिल पाता। खेती से जुड़ी सामग्री खाद, कीटनाशक, सिंचाई और उपकरण महंगे हो गए हैं। कृषि ऋणों का बोझ बढ़ रहा है। प्राकृतिक आपदा के कारण नष्ट हुई खेती का न तो बीमा है और न सरकारी मुआवजे की बेहतर व्यवस्था। पर ये समस्याएं अलग-अलग वर्ग के किसानों की अलग-अलग हैं। इनपर राजनीतिक रंग चढ़ जाने के बाद समाधान मुश्किल हो जाएगा।    

पिछले तीन महीनों में तीन राज्यों ने किसानों पर चढ़े कर्जों को माफ करने की घोषणा की है। महाराष्ट्र ने 12 जून को 30,000 करोड़ रुपये की कर्ज माफी की। इसके पहले अप्रैल में उत्तर प्रदेश ने 36,000 करोड़ रुपये का कर्ज माफ किया। फिर तमिलनाडु ने 5,700 करोड़ रुपये की कर्ज माफी की घोषणा की जिसे मद्रास हाईकोर्ट ने बढ़ाकर 7,760 करोड़ रुपये कर दिया। अब पंजाब में कर्ज माफी का इंतजार है। तीन राज्यों में 73,760 करोड़ रुपये के कर्ज माफ हो चुके हैं। पंजाब के शामिल होने के बाद यह राशि एक लाख करोड़ तक पहुँच जाएगी। इन सभी राज्यों की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं है। इस माफी के बाद यह कर्ज इन राज्यों पर चढ़ेगा।

इन आंदोलनों की राजनीति को भी समझना चाहिए। मध्य प्रदेश का किसान आंदोलन प्रदेश सरकार के खिलाफ है। उसके पहले तमिलनाडु के कुछ किसान दिल्ली के जंतर-मंतर पर आंदोलन चलाने के लिए आए थे। वह आंदोलन राज्य सरकार के खिलाफ था, पर उन्हें दिल्ली आना पड़ा। उसके पीछे की राजनीति साफ है। किसानों की आत्महत्या के आँकड़े कर्नाटक में भी भयावह हैं, लेकिन कर्नाटक में कर्ज माफी का आंदोलन नहीं है।

मंदसौर की हिंसा से जाहिर है कि किसानों के मन में भारी गुस्सा है। इस गुस्से का लाभ उठाने की राजनीतिक-कामना भी कहीं न कहीं काम कर रही है। एक राजनीति किसानों की कर्ज माफी को मुद्दा बनाती है तो दूसरी राजनीति उन्हें आंदोलन के रास्ते पर ले जाती है। आंदोलन के पीछे वाजिब कारण थे, पर उसे चलाने और निपटाने के तरीके पूरी तरह राजनीतिक थे। आंदोलन की सुगबुगाहट दो महीने से थी। 21 मई को यह तय किया गया कि आंदोलन 1 जून से शुरू किया जाएगा।

आंदोलन के गंभीर रूप लेने पर संघ से जुड़ा किसान संगठन भारतीय किसान संघ भी इसमें शामिल हो गया। उसके शामिल होते ही सरकार ने उन्हें बातचीत के लिए बुलाया। बातचीत हुई और संघ के नेताओं ने घोषणा की कि सरकार ने ज्यादातर मांगें मान ली हैं और आंदोलन को वापस लिया जा रहा है। यह घोषणा भारतीय किसान संघ के नेताओं ने की थी। दूसरे आंदोलनकारी धड़ों को यह बात नागवार गुजरी और उन्होंने आंदोलन को तेज कर दिया। वे हिंसक होने लगे और उसका नतीजा गोलीकांड था।

कृषि विशेषज्ञ देविंदर शर्मा ने हाल में एक इंटरव्यू में बताया कि देश में तकरीबन 52 फीसदी लोग प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से खेती से जुड़े हैं। इनमें भूमिहीन काश्तकारों या खेत मजदूरों की संख्या ज्यादा है। तकरीबन 35 करोड़ लोग भूमिहीन हैं और करीब 25 करोड़ लोग ऐसे हैं, जिनके पास जमीन है। लोग खेती से हट रहे हैं। यह सायास हो रहा है और इसके पीछे विश्व बैंक के निर्देश पर अपनाई गई नीतियाँ हैं। यह अर्थ-व्यवस्था के रूपांतरण की घड़ी भी है।

खेती-किसानी किसी भी तरह से फायदे का सौदा नहीं रही। लागत बढ़ रही है और कीमत उसके हिसाब से बढ़ नहीं रही है। 1970 में गेहूँ की कीमत 76 रुपये प्रति क्विंटल थी, जो 2015 में 1450 रुपये प्रति क्विंटल हो गई। यानी 45 साल में कीमतें 19 गुना बढ़ीं। शहरी लोगों की आय में इस दौरान सौ से डेढ़ सौ गुना की वृद्धि हुई, किसान लगातार पीछे चलते चले गए।

शहरीकरण जबरन और जल्दबाजी में नहीं हो सकता। देश की खाद्यान्न व्यवस्था को भी कायम रखना है। खेती-किसानी कुप्रबंध की शिकार है। साठ के दशक में जन्मे अन्न-संकट के बाद देश में सन 1965 में न्यूनतम समर्थन मूल्य की प्रणाली का विकास हुआ। यह व्यवस्था अब लड़खड़ा रही है। जो तथ्य सामने आ रहे हैं उनसे पता लगता है कि केवल छह फीसदी किसानों को ही न्यूनतम समर्थन मूल्य प्रणाली का कवच उपलब्ध है। राष्ट्रीय स्तर पर भंडारण और वितरण की व्यवस्था चरमरा गई है।

किसानों की आत्महत्याओं की खबरें उन्हीं इलाकों से ज्यादा मिल रहीं हैं जहां के किसान खेती की मुख्य खाद्य पैदावारों पर निर्भर नहीं हैं बल्कि अंगूर, कपास, प्याज, फल-सब्जी, दलहन आदि बेहतर कमाई देने वाली नकदी फसलों से लेकर दूध तक के उत्पादन से भी जुड़े हैं। इन किसानों ने अपनी आय बढ़ाने के लिए ज्यादा निवेश किया और कर्ज के फंदे में फँस गए। किसानों की मुख्य माँग है फसलों का समर्थन मूल्य फसल की लागत में पचास फीसदी मुनाफा जोड़कर तय करना। इसकी सिफारिश एमएस स्वामीनाथन आयोग ने की थी।

सारा दोष वर्तमान सरकार के मत्थे मारना भी गलत है। सन 2006 में जब स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट सौंपी गई तब केंद्र में यूपीए की सरकार थी। उसके आठ साल बाद तक यह सरकार रही। तब सिफारिशों को लागू किया जा सकता था। हाल में किसान आंदोलन के बाद डॉ स्वामीनाथन ने ट्वीट किया कि मोदी सरकार हमारी सिफारिशें लागू कर रही है। आयोग ने सिंचाई योजनाओं को सुदृढ़ करने की सिफारिश की थी। मोदी सरकार ने प्रधानमंत्री कृषि सिंचाई योजना, फसल बीमा योजना और किसानों को ऋण उपलब्ध कराने की दिशा में कदम उठाए भी हैं। हाल में सरकार ने किसानों के कर्ज की ब्याज दर में कटौती करते हुए उसे 4 फीसद तक लाने के प्रस्ताव को मंजूरी दी है। यह भी स्वामीनाथन-सिफारिश है। 

1 comment:

  1. राजनीती इतनी हावी है की देश बर्बाद हो रहा है ...

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