Thursday, March 10, 2016

सवाल माल्या का ही नहीं, बीमार बैंकों का भी है

विडंबना है कि जब देश के 17 सरकारी बैंकों के कंसोर्शियम ने सुप्रीम कोर्ट में रंगीले उद्योगपति विजय माल्‍या के देश छोड़ने पर रोक लगाने की मांग की तब तक माल्या देश छोड़कर बाहर जा चुके थे. अब सवाल इन बैंकों से किया जाना चाहिए कि उन्होंने क्या सोचकर माल्या को कर्जा दिया था? हाल में देश के 29 बैंकों से जुड़े कुछ तथ्य सामने आए तो हैरत हुई कि यह देश चल किस तरह से रहा है. विजय माल्या पर जो रकम बकाया थी, उसकी वसूली शायद अब कभी नहीं हो सकेगी. कर्ज रिकवरी न्यायाधिकरण ने जिस राशि को रोका है वह ऊँट के मुँह में जीरे की तरह है. अफसोस इस बात का है कि व्यवस्था बहुत देर से जागी है. अपराधी आसानी से निकल कर भाग गया. साबित यह हुआ कि बीमार माल्या नहीं हमारे बैंक है.

पिछले रविवार को विजय माल्या ने एक खुला खत लिखकर दावा किया कि स्टेट बैंक को किंगफिशर एयरलाइंस के बारे में पूरी जानकारी थी. यह खत तब लिखा गया जब स्टेट बैंक ने कर्नाटक हाइकोर्ट में जाकर माल्या की गिरफ्तारी और पासपोर्ट की जब्ती वगैरह के लिए दरवाजे खटखटाए. माल्या की बातों से इशारा मिलता है कि देश का बैंकिग सिस्टम बुरी तरह सड़ गया है. सच यह है कि स्टेट बैंक के पास किंगफिशर का पूरा स्वामित्व है, पर आज उसे खरीदने वाला कोई नहीं है। उसकी सम्पत्ति की कीमत सिर्फ छह करोड़ रुपए है, जबकि तब 4,111 करोड़ रुपए थी.

किंगफिशर एयरलाइंस पर 17 बैंकों का 7000 करोड़ से ज्यादा का कर्ज था. उसकी वसूली कैसे होगी? पर इन बैंकों की रकम सिर्फ माल्या पर ही बकाया नहीं थी. रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया (आरबीआई) की ओर से जारी आंकड़ों के मुताबिक, 2013 से 2015 के वित्तीय वर्षों में बैंकों ने करीब 1.14 लाख करोड़ रुपए के कर्जों को बट्टे खाते में दिखाया है. सन 2004 से 2012 के बीच एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स) यानी डूबे हुए लोन की रकम में 4 फीसदी की वृद्धि हो रही थी, जो 2013 से 2015 के बीच 60 फीसदी हो गई. देश के सभी बैंकों के एनपीए की राशि 2015 में 3.6 लाख करोड़ रुपए हो चुकी है, जो 2011 में 71,000 करोड़ थी. देश की बैंकिंग इंडस्ट्री की कुल संपत्ति का दो तिहाई से ज्यादा हिस्सा सरकारी क्षेत्र के बैंकों के पास है. पर उनके पास करीब 85 फीसदी एनपीए है.

रिजर्व बैंक भी यह नहीं बता पाता कि बैंकों से कर्ज लेकर वापस न करने वाले कौन हैं. वे व्यक्ति हैं या संस्थाएं. बैंक डूबे हुए पैसों का संयुक्त आंकड़ा ही पेश करते हैं. देश में सिर्फ दो ऐसे छोटे बैंक हैं, जिन्होंने ऐसा कोई लोन बीते पांच सालों में पास नहीं किया जिसमें पैसा डूबा हो. विजय माल्या को आप पकड़ लें तब भी सवाल है कि उन माल्याओं का आपके पास क्या इलाज है जिनका हिसाब-किताब अभी देश के सामने नहीं आया है.

रिजर्व बैंक के गवर्नर रघुराज रामन ने इस रोग के इलाज के लिए बड़ी सर्जरी का सुझाव दिया है. पिछले महीने संसद की एक स्थायी समिति ने बैंकों के एनपीए या बट्टे खाते की समस्या पर अपनी रपट संसद के सामने रखी थी. समिति ने इस समस्या की गहराई की और इशारा किया है और यह भी बताया है कि निजी बैंकों के मुकाबले सरकारी बैंकों का हाल ज्यादा खराब है. इसमें देश की अर्थ-व्यवस्था की भूमिका भी है. सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक इंफ्रास्ट्रक्चर से जुड़ी कम्पनियों की आर्थिक स्थिति का सही आकलन नहीं कर पाए. दूसरे कर्ज रिकवरी न्यायाधिकरण और लोक अदालतें जरूरत भर की राशि वसूल नहीं कर पाईं. इसका मतलब है कि कर्ज वसूली से जुड़ी न्यायिक व्यवस्था को बेहतर बनाने की जरूरत है.

पिछले साल अगस्त में वित्तमंत्री अरुण जेटली ने कहा था कि सार्वजनिक क्षेत्रों में एनपीए का स्तर असहनीय स्तर तक जा पहुँचा है. पर सरकार के पास इसका इलाज क्या था? इसके इलाज के रूप में पहली जरूरत थी बैंकों की पूँजी को बेहतर बनाना. इसके लिए चार साल में 70,000 करोड़ रुपए उन्हें देने की घोषणा की गई. इस बार के बजट में भी बैंकों के लिए पूँजी की व्यवस्था की गई है. सरकार को उम्मीद है कि बैंक 2017 तक अपनी बैलेंस शीट ठीक कर लेंगे. सवाल है कि बैंक अपना रुपया वापस कैसे लाएंगे?

संसद के इस सत्र में बैंकों की इस दुर्दशा पर गहराई से विचार होना चाहिए था, जो नहीं हुआ. राजनीतिक दृष्टि से जीएसटी विधेयक पर काफी चर्चा हुई है, पर बैंकरप्सी कोड यानी दिवालिया कानून पर ध्यान कम दिया गया है. बैंकिंग क्षेत्र के लगातार गहराते संकट से निपटने के लिए कर्जों की वसूली से जुड़ी व्यवस्थाओं पर जल्द से जल्द ध्यान देना होगा. साथ ही बड़ी औद्योगिक जरूरतों और लम्बी अवधि की पूँजी के लिए बैंकों पर निर्भरता कम करने की जरूरत है. इसके लिए बॉण्ड बाजार का सहारा लेना चाहिए. देश में उद्योगों को बैंकों का कर्ज जीडीपी का 37 फीसदी है और बॉण्ड बाजार का शेयर 10.5 फीसदी. इसे उल्टा होना चाहिए और शेयर बाजार से बड़ा होना चाहिए.

विजय माल्या का मामला असल समस्या नहीं है, बल्कि समस्या का लक्षण है. इस समस्या के दो पहलू हैं. पहला यह कि सामान्य नागरिक को लोन देने में तमाम तरह की कानून बाजी दिखाने वाले बैंक उद्योगपतियों के मामले में उदार कैसे हो जाते हैं? कर्ज देते समय वापसी के सुरक्षित दरवाजे खोलकर क्यों नहीं रखते? इसमें सरकार की जिम्मेदारी ऐसी संस्थाओं के निर्माण की है, ज कर्जों की वापसी में तेजी लाएं. साथ ही यह भी देखा जाना चाहिए कि राजनीतिक संबंधों के आधार पर क्या हमने सार्वजनिक धन की लूट का लाइसेंस दे रखा है? इससे भी बड़ी जरूरत इस बात है कि बैंकिंग व्यवस्था को भविष्य के लिए स्वस्थ बनाया जाए.

बैंकों की साख से पूँजी निवेश पर भी असर पड़ता है. मूडीज़ इन्वेस्टर्स सर्विस ने इस साल के बजट के संदर्भ में कहा है कि बजट सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों की साख के लिए नकारात्मक है क्योंकि पूंजी निवेश के खाते में 1.45 लाख करोड़ रुपए की जरूरत है, जबकि बजट में इसके लिए 25,000 करोड़ रुपए का प्रावधान किया गया है. सरकार अब दो दर्जन से ज्यादा सरकारी बैंकों का आपस में विलय करने पर भी विचार कर रही है. बहरहाल जो भी होना है जल्द होना चाहिए.प्रभात खबर में प्रकाशित

2 comments:

  1. आपकी यह उत्कृष्ट प्रस्तुति कल शुक्रवार (11.03.2016) को "एक फौजी की होली " (चर्चा अंक-2278)" पर लिंक की गयी है, कृपया पधारें और अपने विचारों से अवगत करायें, वहाँ पर आपका स्वागत है, धन्यबाद।

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  2. बैंकों का न राजनीतिकरण होना चाहिए , और न ही उन पर राजनैतिक दबाव

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