Friday, November 23, 2012

टू-जी नीलामी के पेचो-खम

हिन्दू में सुरेन्द्र का कार्टून

“मिस्टर सीएजी कहाँ हैं एक लाख छिहत्तर हजार करोड़ रुपए?” सूचना-प्रसारण मंत्री मनीष तिवारी के इस सवाल के पीछे सरकार की हताशा छिपी है। सरकार की समझ है कि सीएजी ने ही टू-जी का झमेला खड़ा किया है। यानी टू-जी नीलामी में हुई फ़ज़ीहत के ज़िम्मेदार सीएजी हैं। दूरसंचार मंत्री कपिल सिब्बल को लगता है कि ट्राई ने नीलामी के लिए जो रिज़र्व कीमत रखी, वह बहुत ज़्यादा थी। हम उस पर चलते तो परिणाम और भयावह होते। उनके अनुसार नीतिगत मामलों में सरकार को फैसले करने की आज़ादी होनी चाहिए।

कपिल सिब्बल की बात जायज़ है। पर सीएजी सांविधानिक संस्था है। उसकी आपत्ति केवल राजस्व तक सीमित नहीं थी। अब नीलामी में तकरीबन उतनी ही रकम मिलेगी, जितनी ए राजा ने हासिल की थी। इतने से क्या राजा सही साबित हो जाते हैं? सवाल दूसरे हैं, जिनसे मुँह मोड़ने का मतलब है राष्ट्रीय हितों की अनदेखी करना। सन 2007 या 2008 में नीलामी हुई होती तो क्या उतनी ही कीमत मिलती, जितनी अब मिल रही है? यह भी कि सीएजी 1.76 लाख करोड़ के फैसले पर कैसे और क्यों पहुँचे? यह सवाल भी है कि प्राकृतिक सम्पदा का व्यावसायिक दोहन सरकार और उपभोक्ता के हित में किस तरीके से किया जाए। सुप्रीम कोर्ट ने इससे पहले भी कहा है कि नीलामी अनिवार्य नहीं है। दूसरे तरीकों का इस्तेमाल भी होना चाहिए।

देश में पहली जेनरेशन के मोबाइल टेलीफोन की शुरूआत करते समय सरकार को यह सुनिश्चित करना था कि उसे लोकप्रिय बनाने के लिए सस्ता भी रखना होगा। ऐसा न होता तो भारत में टेलीफोन क्रांति न हो पाती, जो अंततः गरीबों की मददगार साबित हुई। सामान्य नागरिक को मोबाइल फोन तो समझ में आता है, पर स्पेक्ट्रम, उसकी नीलामी और टू-जी, थ्री-जी शब्द भ्रम पैदा करते हैं। सरकारी तौर पर यह समझाने की व्यवस्था भी नहीं है। स्पेक्ट्रम शब्द ऐसी वस्तु या प्रक्रिया को बताता है, जिसमें विविधता हो। संचार की भाषा में इसका मतलब है वेवलेंग्थ या फ्रीक्वेंसी। फ्रीक्वेंसी आबंटन माने अलग-अलग वेवलेंग्थ पर संकेत प्रसारित करने की अनुमति। टू-जी और थ्री-जी वगैरह तकनीकों के नाम हैं। 1979 में जब तोक्यो में पहली बार मोबाइल फोन कॉल की गई तो वह तकनीक पहली जेनेरेशन की तकनीक थी। भारत में 1995 में शुरू किए गए पहले मोबाइल फोन इसी 1-जी तकनीक पर आधारित थे, बावजूद इसके कि 1991 में फिनलैंड में टू-जी तकनीक का जन्म हो चुका था। 1-जी एनालॉग रेडियो सिग्नल पर आधारित होते हैं और 2-जी डिजिटल सिग्नल पर। तकनीक के डिजिटल होने पर ध्वनि के साथ कई प्रकार के प्रयोग हो सकते हैं। साथ ही स्पीड भी बढ़ाई जा सकती है। इसमें फोटोग्राफ, वीडियो, संगीत वगैरह का आदान-प्रदान तेज़ गति से सम्भव है। 2-जी से 3-जी, 4-जी और 5-जी की ओर तकनीक बढ़ रही है। इससे एक ओर फोन का आकार छोटा हो रहा है, दूसरी ओर उसमें हाईस्पीड इंटरनेट प्राण फूँक रहा है। कई प्रकार के गेम और मनोरंजन के साधन भी जमा हो गए हैं, जो अमीरों की मौज के लिए हैं। पर अंततः यह तकनीक शिक्षा, स्वास्थ्य, संचार-संवाद, लोकतांत्रिक संस्थाओं, सामाजिक सेवाओं और काम-काज के तरीकों में बुनियादी बदलाव लाएगी। इसलिए इसकी उपेक्षा नहीं की जा सकती।

हाल में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी में आकाश टेबलेट का विकसित वर्ज़न जारी किया है, जो आने वाली पीढ़ी के रचनात्मक विकास में मदद करेगा। इन उपकरणों का इस्तेमाल करने के लिए हमें सस्ती दरों पर हाईस्पीड ब्रॉडबैंड की ज़रूरत भी होगी। यह संयोग नहीं है कि स्कैंडिनेविया के स्वीडन और नॉर्वे जैसे देश अपने नागरिकों को इतनी सस्ती और इतनी हाईस्पीड ब्रॉडबैंड सेवा उपलब्ध कराते हैं कि हम उसकी कल्पना नहीं कर सकते। इस लिहाज से स्पेक्ट्रम की नीलामी को केवल व्यावसायिक कर्म नहीं माना जा सकता। पेट्रोलियम सब्सिडी की तरह यह सुविधा भी सामाजिक लिहाज से उपयोगी है। इसीलिए हम बच्चों को सस्ते टेबलेट देना चाहते हैं। इसमें व्यवसाय भी है, इसलिए हर सरकार के सामने होम करते हाथ जलने का खतरा है। यह तकनीक लगातार विकसित होती जाएगी। कोलकाता और बेंगलुरु में फोर-जी तकनीक लांच होने के साथ भारत दुनिया के चुनींदा देशों में शामिल हो गया है। बाजार में 4-जी उपकरण उपलब्ध हैं, पर उनकी कीमत हरेक के बस की बात नहीं। हमारे चारों ओर सायबर-क्रांति हो रही है, जिसे रोका नहीं जा सकता, और गरीबी से जूझते भारत की अनदेखी भी नहीं की जा सकती। इस काम में इस तकनीक की मदद तो ली जा सकती है।

मोबाइल फोन सेवाओं के आने वाले व्यावसायिक आबंटन नीलामी से हो रहे हैं। धीरे-धीरे नई सेवाएं देशभर में फैल रहीं हैं। मोबाइल टेलीफोनी के समानांतर फाइबर ऑप्टिक तकनीक से घरों को जोड़ने का काम भी होना है। ये काम व्यावसायिक हैं और उसके झमेले हैं। पर टू-जी नीलामी के पेचो-खम को समझना चाहिए। सन 2008 में ए राजा ने 122 लाइसेंस 9200 करोड़ रुपए में जारी किए थे, जबकि इस बार 22 लाइसेंसों में उससे ज्यादा रकम हासिल हो गई। इस वक्त हमारी अर्थव्यवस्था की जो स्थिति है उसके मुकाबले 2008 के जनवरी में स्थितियाँ कहीं बेहतर थीं। इस बार 14000 करोड़ रुपए का जो बेस प्राइस रखा गया उसमें दिल्ली, मुम्बई और कर्नाटक की कीमत तकरीबन 48 फीसदी थी। इन तीन सर्किलों में ही बिड नहीं हुईं। इसका मतलब नीलामी को फेल नहीं कहा जा सकता। लगता है इन तीन सर्किलों की कीमत ज्यादा रखी गई थी। और यह भी कि देश के टेलीफोन उद्योग ने कार्टेल बनाकर इसे विफल किया है। जहाँ तक सीएजी ने नुकसान का जो अनुमान लगाया था, वह चार प्रकार का था। 57 करोड़, 67 करोड़, 69 करोड़ और 1.76 लाख करोड़। सारे अनुमान सरकारी दस्तावेज़ों के आधार पर थे। यह भी सच है कि ए राजा ने जो राजस्व एकत्र किया, उससे करीब डेढ़ गुना सिर्फ एक कम्पनी एस-टेल उस वक्त देने को तैयार थी। एक नीलामी के फेल हो जाने मात्र से यह नहीं मान लेना चाहिए कि टू-जी घोटाला था ही नहीं। उसे सामने आने दीजिए।
23 नवम्बर,2012 के अमर उजाला में प्रकाशित 





1 comment: