Friday, November 16, 2012

चीन एक वैकल्पिक मॉडल भी है

चीनी व्यवस्था को लेकर हम कितनी भी आलोचना करें, दो बातों की अनदेखी नहीं कर सकते। एक 1949 से, जब से नव-चीन का उदय हुआ है, उसकी नीतियों में निरंतरता है। यह भी सही है कि लम्बी छलांग और सांस्कृतिक क्रांति के कारण साठ के दशक में चीन ने भयानक संकटों का सामना किया। इस दौरान देश ने कुछ जबर्दस्त दुर्भिक्षों का सामना भी किया। सत्तर के दशक में पार्टी के भीतर वैचारिक मतभेद भी उभरे। देश के वैचारिक दृष्टिकोण में बुनियादी बदलाव आया। माओ के समवर्ती नेताओं में चाऊ एन लाई अपेक्षाकृत व्यावहारिक थे, पर माओ के साथ उनका स्वास्थ्य भी खराब होता गया। माओ के निधन के कुछ महीने पहले उनका निधन भी हो गया। उनके पहले ल्यू शाओ ची ने पार्टी की सैद्धांतिक दिशा में बदलाव का प्रयास किया, पर उन्हें कैपिटलिस्ट रोडर कह कर अलग-थलग कर दिया गया और अंततः उनकी 1969 में संदिग्ध परिस्थितियों में मौत हो गई। उसके बाद 1971 में लिन बियाओ माओ के खिलाफ बगावत की कोशिश में मारे गए। 1976 में माओ जेदुंग के निधन के बाद आए हुआ ग्वो फंग और देंग श्याओ फंग पर ल्यू शाओ ची की छाप थी। कम से कम देंग देश को उसी रास्ते पर ले गए, जिस पर ल्यू शाओ ची जाना चाहते थे। चीन का यह रास्ता है आधुनिकीकरण और समृद्धि का रास्ता। कुछ लोग मानते हैं कि चीन पूँजीवादी देश हो गया है।  वे पूँजीवाद का मतलब निजी पूँजी, निजी कारखाने और बाजार व्यवस्था को ही मानते हैं। पूँजी सरकारी हो या निजी इससे क्या फर्क पड़ता है? यह बात सोवियत संघ में दिखाई पड़ी जहाँ व्यवस्था का ढक्कन खुलते ही अनेक पूँजीपति घराने सामने आ गए। इनमें से ज्यादातर या तो पुरानी कम्युनिस्ट पार्टी के नेता हैं या कम्युनिस्ट शासन से अनुग्रहीत लोग। चीनी निरंतरता का दूसरा पहलू यह है कि 1991 में सोवियत संघ के टूटने के बावजूद चीन की शासन-व्यवस्था ने खुद को कम्युनिस्ट कहना बंद नहीं किया। वहाँ का नेतृत्व लगातार शांतिपूर्ण तरीके से बदलता जा रहा है। इसका मतलब यह हुआ कि वहाँ पार्टी का बड़ा तबका प्रभावशाली है, केवल कुछ व्यक्तियों की व्यवस्था नहीं है।

पार्टी की अठारहवीं कांग्रेस के बाद चीन की इस निरंतरता की एक बार फिर से पुष्टि हुई है। उम्मीद के अनुसार शी जिनपिंग पार्टी के नेता चुने गए हैं और वे देश के अगले राष्ट्रपति होंगे। ली केचियांग को वेन जियाबाओ की जगह देश का नया प्रधानमंत्री बनाया जा सकता है। वर्तमान राष्ट्रपति हू जिंताओ और प्रधानमंत्री वेन जियाओबाओ केन्द्रीय समिति की सदस्यता से भी हट गए हैं। हर दस साल बाद नेतृत्व परिवर्तन की व्यवस्था सुचारू रूप से चल रही है, यह इस व्यवस्था की सफलता है। नेता चुने जाने के बाद शी ने कहा, “चीनी राष्ट्र ने मानवता के विकास में बहुत योगदान दिया है। हम अब बहुत अहम मोड़ पर हैं। हमारा मिशन एकुजट रहना है। उन्होंने रिश्वत और भ्रष्टाचार को पार्टी की बड़ी समस्या बताया जिसे दूर किए जाने की जरूरत है।

इस बार कुछ व्यवस्थागत बदलाव भी हुए हैं। एक तो पोलित ब्यूरो की नई स्थायी समिति के सदस्यों की संख्या नौ से घटा कर सात कर दी गई है। नई समिति में शी जिनपिंग, ली केचियांग, झांग देजियांग, यू झेंगशेंग, लियु युनशान, वांग चिशान और झांग गाओली शामिल हैं। पोलित ब्यूरो देश की सबसे ताकतवर संस्था है। इसके सदस्यों की संख्या कम होने से इसके सदस्यों की ताकत और बढ़ गई है। इससे किसी एक नेता के अतिशय ताकतवर होने की सम्भावनाएं भी कम होती जा रहीं हैं। इसके पूर्व के नेता रिटायर ज़रूर हो रहे हैं, पर पार्टी पर उनका प्रभाव खत्म नहीं हुआ है। मसलन हू जिंताओ से पहले के राष्ट्रपति जियांग जेमिन आज भी देश के सबसे ताकतवर नेता माने जाते हैं। नेताओं के बीच व्यक्तिगत राग-द्वेष नहीं होते होंगे ऐसा नहीं मान लेना चाहिए, पर चीन किस तरह अपने राजनातिक संतुलन को बनाता है यह देखने की ज़रूरत भी है। और यह भी राज-व्यवस्था का यह मॉडल पश्चिमी देशों से नहीं आया है।

चीनी अर्थव्य़वस्था कम्युनिस्ट व्यवस्था है या नहीं, इस पर कम्युनिस्ट विचारकों के बीच बहस है। सात-आठ साल पहले क्यूबा के मार्क्सवादी अर्थशास्त्रियों के बीच बहस थी कि चीन के मार्केट सोशलिज्म को क्यों न स्वीकार किया जाए। उनका कहना था कि चीन ने अपने मार्केट सोशलिज़्म के सहारे बड़ी संख्या में लोगों को गरीबी से उबारने में सफलता हासिल की है। इसके बरक्स दूसरी बहस यह है कि इस मार्केट सोशलिज़्म को पारदर्शी भी होना चाहिए। सन 1978 में चीन में चार आधुनिकीकरण कार्यक्रम शुरू हुआ था। तब छात्र नेता वेंग जिंगशेंग ने दीवार पोस्टर के माध्यम से सवाल उठाया, लोकतंत्र नहीं तो आधुनिकीकरण नहीं। पाँचवाँ आधुनिकीकरण लोकतंत्र। यह सवाल उठाने पर वेंग को पन्द्रह साल की सजा हुई। पर तब से यह सवाल कई बार उठा है। 1989 में तिएन अन मन चौक के आंदोलन में यह सवाल पूरी शिद्दत के साथ उठा था और उस आंदोलन को बुरी तरह कुचल दिया गया। पर सवाल खत्म नहीं हुआ। आज इंटरनेट के दौर में यह और शिद्दत के साथ उठ रहा है। इस चुनौती से चीन किस तरह निपटेगा यह देखने की बात है।

चीन दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था है, लेकिन दुनिया के कई हिस्सों में आर्थिक संकट को देखते हुए उसकी आर्थिक वृद्धि में भी गिरावट देखी जा रही है। उसका औद्योगीकरण पर जोर है। ग्रामीण आबादी शहरों में आ रही है। वहीं स्वास्थ्य सेवाओं, शिक्षा और सामाजिक कल्याण के कार्यक्रमों पर सरकारी खर्च में कमी आ रही है। क्या आर्थिक विकास का मतलब जन-कल्याण के कार्यों में गिरावट है? या आर्थिक विकास के भीतर से कोई वैकल्पिक कल्याण कार्यक्रम उभर कर आएगा? यह सवाल भारत जैसे देशों में भी है। आर्थिक विषमता का ग्राफ चीन में बढ़ता जा रहा है। देश के पश्चिमी सूबों में, जहाँ गरीबी है, असंतोष बढ़ता जा रहा है।

वैश्विक धरातल पर चीन के सामरिक हित बढञते जा रहे हैं। धीरे-धीरे वह अमेरिका के साथ सीधी प्रतियोगिता में आ गया है। जापान, दक्षिण कोरिया, फिलीपींस और कई दक्षिण पूर्व एशियाई देशों के साथ उसके विवाद हाल के समय में गहराए हैं। ऐसे में नए नेतृत्व के सामने कई चुनौतियां हैं। नए नेता शी जिनपिंग ने कहा चीन को दुनिया के बारे में ज्यादा जानने की जरूरत है, उतनी ही जरूरत दुनिया को चीन के बारे में ज्यादा जानने की है। उधर अमेरिका अपनी विदेश नीति के प्रबंधन के तौर पर एशिया-प्रशांत क्षेत्र में ताकत बढ़ा रहा है। इसमें वह भारत को भी शामिल कर रहा है। दक्षिण चीन सागर में भारतीय टीमें वियतनाम के लिए तेल की खोज कर रहीं हैं। चीन इस इलाके को अपना मानता है। उसने भारत को वहाँ से अलग रहने को कहा है। दक्षिण एशिया में पाकिस्तान के साथ रिश्तों के संदर्भ में भी चीन की महत्ता है। भारत का चीन के साथ सीमा विवाद है। इसके अलावा अफगानिस्तान में शांति स्थापित करने के प्रयत्नों में भारत और चीन की भूमिका को लेकर भी कई तरह के सवाल हैं। सबसे महत्वपूर्ण है भारत और चीन के व्यापारिक रिश्ते। दोनों देशों की वैश्विक बाजार में पहुँच बढ़ती जा रही है। हालांकि चीन मैन्यूफैक्चरिंग सेक्टर में हमसे काफी आगे है, पर भारत सेवा क्षेत्र में बेहतर है। दोनों देशों का आपसी व्यापार 70 अरब डॉलर से ज्यादा है। दोनों के आर्थिक विकास की अपार सम्भावनाएं हैं। मौजूदा समय में आर्थिक सहयोग सबसे महत्वपूर्ण कारक है। दोनों देशों के सामने दो समस्याएं एक जैसी हैं। पहली है तेज़ आर्थिक विकास के सहारे गरीबी दूर करना। और दूसरी है भ्रष्टाचार। पार्टी की अठारहवीं कांग्रेस के उद्घाटन भाषण में राष्ट्रपति हू जिंताओ ने भ्रष्टाचार का ज़िक्र भी किया है। दोनों देशों के रिश्ते हजारों साल पुराने हैं। दोनों अतीत की महान सभ्यताएं हैं। और दोनों को आगे मिलकर चलना है। और दोनों को एक-दूसरे से सीखना है।

जनवाणी में प्रकाशित

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